पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५७

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वैराग्य प्रकरण।

स्त्री का संग है। हे मुनीश्वर जैसे वन के दाह की अग्नि वन को जलाती है वैसे ही स्त्री रूपी अग्नि उससे भी अधिक है, क्योंकि वह अग्नि तो स्पर्श करने से ही जलाती है परन्तु स्री रूपी अग्नि स्मरणमात्र से जलाती है। जो सुख रमणीय दीखता है वह आपात-रमणीय हैं; जब स्त्रीसुख का वियोग होता है तब मुरदे की नाई हो जाता है। हे मुनीश्वर! यह तो अस्थि, मांस और रुधिर का पिंजरा है सो अग्नि में भस्म हो जायगा अथवा पशु पक्षी के खाने का आहार होगा और प्राण आकाश में लीन हो जावेंगे। इससे इस स्त्री की इच्छा करनी मूर्खता है। जैसे अग्नि की ज्वाला के ऊपर श्यामता होती है वैसे स्त्री के शीश के ऊपर श्याम केश हैं और जैसे अग्नि के स्पर्श करने से जलता है वैसे ही स्त्री के स्पर्श करने से पुरुष जलता है, इससे जलना दोनों में तुल्य है। हे मुनीश्वर! युवावस्था को नष्ट करने वाली स्त्रीरूपी अग्नि है। जो स्त्री की इच्छा करते हैं वह महामूर्ख और अज्ञानी हैं। वह बी इच्छा अपने नाश के निमित्त करते हैं। जैसे पतङ्ग अपने नाश के निमित्त दीपक की इच्छा करता है वैसे ही कामी पुरुष अपने नाश के निमित्त स्त्री की इच्छा करता है। हे मुनीश्वर! स्त्री रूपी विष की वेलि है हाथ पाँव के अग्रभाग उसके पत्र हैं, भुजा डाली हैं, स्तनरूप गुच्छे हैं और नेत्र आदिक इन्द्रियाँ फूल हैं उस पर कामी पुरुषरूपी भँवरे या बैठते हैं। कामरूपी धीवर ने स्त्रीरूपी जाल पसारा हे उस पर कामी पुरुषरूपी पक्षी मा फँसते हैं। कामरूपी धीवर उनको फंसाकर परम कष्ट देता है। ऐसे दुःख की देने वाली स्त्री की जो वाञ्छा करते हैं महामूर्ख हैं। हे मुनीश्वर! स्त्री रूपी सर्पिणी है जब उसका फूत्कार निकलता है तब वैराग्यरूपी कमल जल जाते हैं और जब सर्पिणी डसती है तब विष चढ़ता है। स्त्री रूपी सर्पिणी का चिन्तन करते ही भीतर से आप ही विष चढ़ जाता है। हे मुनीश्वर! जैसे व्याध छलकर मछली को फाँसता है वैसे ही कामी पुरुष छली के सदृश सुन्दर स्त्रीरूपी जाल देखके फँसता है और स्नेहरूपी तागे से बन्धन पाकर खिंचा चला जाता है, तब तृष्णारूपी छुरी से काम उसे मार डालता है। हे मुनीश्वर! ऐसे दुःख के देनेवाली स्त्री की मुझको