पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५७०

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य़ोगवाशिष्ठ।

जलरूप ही है; तैसे सर्वरूप आत्मा एक है, उसमें द्वितीय कल्पना कोई नहीं। जैसे अग्नि में बरफ के कणके नहीं होते, तैसे ही ब्रह्म में दूसरी वस्तु कुछ नहीं। इससे अपने स्वरूप की पापही भावना करो कि 'मैं चिन्मात्ररूप हूँ "जगतजाल सबमेराही स्वरूप है और मैं ही विस्तृतरूप हूँ जो कुछ है वह देव देवही है, न शोक है, न मोह है, न जन्म हैन देह है। ऐसे जानकर विगतज्वर हो जावो, तुम्हारी स्थिरबुद्धि है और तुम शान्तरूप, श्रेष्ठ, मणिवत निर्मल हो। हे राघव! तुम निईन्द होकर नित्यस्वरूप में स्थित हो जावो और सत्यसंकल्प, धैर्य सहित हो, यथा,प्राप्ति में बतों।तुम वीतराग, निर्यन, निर्मल, वीतकल्मष हो, न देते हो, न लेते हो, ग्रहण त्याग से रहित शान्तरूप हो। विश्व से अतीत जो पद है उसमें प्राप्त होकर जो पाने योग्य पद है उसको पाकर परिपूर्ण समुद्रवत् अक्षोभरूप, सन्ताप से रहित विचरो। हे रामजी! संकल्पजाल से मुक्त और मायाजाल से रहित अपने आपसे तृप्त और विगतज्वर हो जावो। आत्मवेत्ता काशरीर अनन्त है और तुम भी आदि अन्त से रहित पर्वत के शिखरवत् विगतज्वर हो। हे रामजी! तुम अपने आपसे उदार होकर अपने आप आनन्द से आनन्दी होवो। जैसे समुद्र और पूर्णमासी का चन्द्रमा अपने आनन्द से आनन्दवान है तैसे ही तुम भी आनन्दवान हो। यह जो प्रपञ्चरचना भासती है सो असत्य है, जो ज्ञानवान हैं वे असत्य जानकर इसकी और नहीं धावते। तुम तो ज्ञानवान हो असत्य कल्पना त्याग करके दुःख से रहित हो और नित्य, उदित, शान्तरूप, शुभगुण संयुक्त उपदेश द्वारा चक्रवर्ती होकर पृथ्वी का राज्य करो, प्रजा की पालना कर और समदृष्टि से विचरो। बाहर से यथाशास्त्र शुभ चेष्टा करो और राज्य की मर्यादा रक्खो पर हृदय से निर्लेप रहना। तुमको त्याग और प्रहण से कुछ प्रयोजन नहीं और ग्रहण त्याग में समदृष्टि होकर राज्य करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशम प्रकरणे प्रथम उपदेशोनाम पञ्चमस्सर्गः॥५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिसकी हृदय से वासना नष्ट हुई है वह पुरुष जो कार्यों में वर्तता है तो भी मुक्त है। हमारे मत में बन्धन का कारण वासना है, जिसकी वासना क्षय हुई है वह मुक्तस्वरूप है और