पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५७१

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उपशम प्रकरण।

जिसकी वासना पदार्थों में सत्य है वह बन्ध में है। कोई पुरुष अपने पुरुषार्थ का आश्रय कर कर्तव्य भी करते हैं और प्रीति करके प्रवर्तते हैं तो वे अपनी वासना से स्वर्ग में जाते हैं और फिर स्वर्ग को त्यागकर दुःख और नरक भोगते हैं। वे अपनी वासना से बंधे हुए पशु आदिक और स्थावर योनि को प्राप्त होते हैं और कोई आत्मवेत्ता पुण्यवान पुरुष मन की दशा को विचारते हैं और तृष्णारूपी बन्धन को काटकर निर्मल आत्मपद को प्राप्त होते हैं। जो पुरुष पूर्वजन्मों को भोगकर इस जन्म में मुक्त होते हैं वे राजस-सात्त्विकी होते हैं। जिनका यह जन्म अन्त का होता है वे क्रम करके पूर्ण पद को प्राप्त होते हैं—जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा क्रम से पूर्णमासी का होता है और सब कलाओं से पूर्ण होता है। जैसे वर्षाकाल में कण्टक वृक्ष की मञ्चरी बढ़ जाती है तैसे ही सौभाग्य और लक्ष्मी उनकी बढ़ती जाती है। हे रामजी! जिनका यह जन्म अन्त का होता है उनमें निर्मल गुण जो वेद ने कहे हैं अर्थात् मैत्री, सौम्यता, मुक्तता, बातव्यता और भार्यता प्रवेश करते हैं। सब जीवों पर दया करना मैत्री है, हृदय में सदा समताभाव रहना और कोई शोभ न उठना मुक्तता कहाता है, सदा प्रसन्न रहना सौम्यता है, यथाशास्त्र प्राचार करना आर्यता है और ज्ञान का नाम ज्ञातव्यता है। जैसे राजा के अन्तःपुर में श्रेष्ठ अङ्गना प्रवेश करती हैं तैसे ही जिसको अन्त का यही जन्म है सो राजस-सात्त्विकी है और उसके हृदय में मेत्री आदिक सर्वगुण था प्रवेश करते हैं। ब्रह्मज्ञानी सब कार्यों को करता है परन्तु उसके हृदय में लाभ अलाभ का राग द्वेष नहीं होता और सर्वदाकाल समभाव रहता है। वह न तोषवान होता है और नशोकवान होता है। जैसे सूर्य के उदय हुए तम नष्ट हो जाता है तैसे ही आत्मभाव से राग द्वेष नष्ट हो जाते हैं और सर्वगुण सिद्धता को प्राप्त होते हैं। जैसे शरत्काल का आकाश शुद्ध होता है तैसे ही वह कोमल और सुन्दर होता है और उसका मधुर आचार होता है, सब जीव उसके आचार की वाञ्छा करते हैं और उसको देखके मोहित हो जाते हैं। जैसे मेघ की ध्वनि से बगुले या प्रवेश करते हैं तैसे ही उस पुरुष में