पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५७५

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उपशम प्रकरण।

भी नहीं, मेरी बुद्धि क्यों नष्ट हुई है। यदि पदार्थ दूर हो और उसके पाने का मेरे मन में यन हो तो वह पाप्त हो ही जावेगा। यह निश्चय करो अथवा अर्थाकार जो संसार के पदार्थ है उनकी आस्था में त्यागता हूँ। ये लोग सब आगमापायी है अर्थात् उदय होते और मिट जाते हैं और जल के तरङ्गों के दृश्य सब पदार्थ क्षणभंगुर हैं। जितने सुख दृष्टि पाते हैं वे दुःख से मिश्रित हैं, उनमें मैंने क्या आस्था बाँधी है। सुख कदाचित् दिन, पक्ष, मास, वर्षादिक में भाते हैं और दुःख बारम्बार भाते हैं में किस सुख से जीने की आस्था बाँ। जो बड़े बड़े हुए हैं वे सब नष्ट हो गये हैं और स्थिर कोई न रहेगा। मैं बारम्बार विचार कर देखता हूँ इससे मैंने जाना है कि इस जगत में सत्य पदार्थ कोई नहीं—सब नाश रूप हैं। ऐसा कौन पदार्थ है कि जिसमें आस्था बाँध? जो अब बड़े ऐश्वर्यवान् विराजते हैं सो कुछ दिन पीछे नीचे गिर पड़ेंगे। हे चित्त! बड़ा खेद है तूने किस बड़ाई में आस्था वाँधी है और मैं किसमें बँधा हुमा कलङ्कित हुभा हूँ? ऊँचे पद में स्थिर होके भी मैं अधः को गिरा हूँ बड़ा कष्ट है कि मैं आत्मा और नाश को प्राप्त होता हूँ। किस कारण अकस्मात् मुझको मोह भाया है और मेरी बुद्धि को इसने उपहत किया है—जैसे सूर्य के आगे मेघ आता है और सूर्य नहीं भासता तैसे ही मुझे आत्मा नहीं भासता। भोगों से मेरा क्या है और बांधवों से मेरा क्या है? इनमें मैं क्यों मोहित हुआ हूँ? देह अभिमान से जीव आपही बन्धायमान होता है। देह में अहंकार ही जरा मरणादिक विचारों का कारण होता है, इससे इनसे मेरा क्या प्रयोजन है। इन अर्थों में क्या बड़ाई है और राज्य में मैं क्यों धैर्य करके बैठा हूँ। ये सब पदार्थ शोभ के कारण हैं और ये ज्यों के त्यों रहते हैं। इनमें न मुझको ममता है न संग है-ये सर्व असत्यरूप हैं। संसार के सुख विषरूप हैं और इनमें भास्था करनी मिथ्या है,जो बड़े-बड़े ऐश्वर्यवान और बड़े पराक्रमी गुणवान् हुए हैं वे सब परिवारसंयुक्त मर गये हैं तो वर्तमान में क्या धैर्य करना है। कहाँ वह धन और राज और कहाँ उस ब्रह्मा का जगत्। कई पुरुषों की पंक्ति बीत गई है हमको उनसे क्या विश्वास है। देवताओं के नायक अनेक इन्द्र नष्ट हो गये