पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५७९

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उपशम प्रकरण।

सहित मन का अभाव हो जाता है, इसमें मैं नाशरूप पदार्थों में नहीं स्मता। संसार की वृत्ति अनेक फाँसियों से मिश्रित है उसमें गिरके जीव फिर उछलते हैं और शान्त कदाचित् नहीं होते। ऐसी संसार की वृत्ति को मैंने चिरकाल पर्यन्त भोगा है अब मैं भोग से रहित होकर ब्रह्म ही होता हूँ। इस संसार में बारम्बार जन्म मरण होता है और शोक ही पास होता है इसमें अब संसार की वृत्ति से रहित हो शोच से रहित होता हूँ अब मैं प्रबुद्ध और हर्षवान हुआ हूँ। मैंने अपने चोर आपही देखे हैं। जिनका नाम मन है इसी को मारूँगा। इस मन ने मुझको चिरपर्यन्त मारा है इतने काल पर्यन्त मेरा मनरूपी मोती अवेध रहा था अब मैंने इसको वेधा है अर्थात् आत्मविचार से रहित था सो अब उसको आत्म-विचार में लगाया है और अब यह आत्मज्ञान के योग्य है। मनरूपी एक बरफ का कण जड़ता को प्राप्त हुआ था अब विवेकरूपी सूर्य से गल गया है और अब मैं अक्षय शान्ति को प्राप्त हुआ हूँ। अनेक प्रकार के वचनों से साधुरूप जो सिद्ध थे उन्होंने मुझको जगाया है और अब मैं आत्मपद को प्राप्त हुआ हूँ। परमानन्द से अब मैं आत्मरूपी चिन्तामणि को पाकर एकान्त सुखी होकर स्थित होऊँगा। जैसे शरत्काल का आकाश निर्मल होता है तैसे होऊँगा। मनरूपी शत्रु ने मुझको भ्रम दिखाया था वह अब विवेक से नाश किया है और उपशम को प्राप्त हुआ हूँ। हे विवेक! तुझको नमस्कार है

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे जनकविचारो नाम नवमस्सर्गः॥९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जब राजा चिन्तन करता था तब तक दासी ने राजा के निकट आकर कहा, हे देव अब उठिये और दिन का उचित विचार अर्थात् स्नानादिक कीजिये। स्नानशाला में पुष्प केसर और गङ्गाजल आदि के कलशे लेकर खियाँ खड़ी हैं और कमल पुष्प उनमें पड़े हैं जिन पर भंवरे फिरते हैं, छत्र, चमर पड़े हैं, स्नान का समय है। हे देव! पूजन के निमित्त सब सामग्री आई है और रन और औषध ले आये हैं। हाथों में ब्राह्मण स्नान करके और पवित्रे डालकर