पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८

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योगवाशिष्ठ।

इच्छा नहीं। कामरूपी व्याध ने रागरूपी इन्द्रियों से जाल बिछा कामी पुरुषरूपी मृगों को आसक्त कर डाला है। स्त्री की स्नेहरूपी डोरी है। उससे कामी पुरुषरूपी बैल बँधा है और स्त्री के मुखरूपी चन्द्रमा को देखकर कामी पुरुषरूपी कमलिनी खिल आती है। जैसे चन्द्रमुखी कमल चन्द्रमा को देखकर प्रसन्न होते हैं और सूर्यमुखी नहीं होते वैसे ही कामी पुरुष भोग से प्रसन्न होते हैं और ज्ञानवान प्रसन्न नहीं होते। जैसे नेवला सर्प को विल से निकाल के मारता है वैसे ही कामी पुरुष को स्त्री आत्मानन्द में से निकाल के मार डालती है। पुरुष जब स्त्री के निकट जाता है तब वह उसको भस्म कर डालती है। जैसे सूखे तृण और घृत को भग्नि भस्म कर डालती है वैसे ही कामी पुरुष को स्त्रीरूपी नागिनि भस्म कर डालती है। हे मुनीश्वर! स्त्री रूपी रात्रि का स्नेहरूपी अन्धकार है और काम, क्रोधादिक उसमें उलूक और पिशाच हैं। हे मुनीश्वर! जो स्त्री रूपी खड्ग के प्रहार से युवारूपी संग्राम से बचा है वह पुरुष धन्य है; उसको मेरा नमस्कार है। स्त्री का संयोग परम दुःख का कारण है, इससे मुझको इसकी इच्छा नहीं। हे मुनीश्वर! जो रोग होता है उसी के अनुसार जो औषध करता है तो रोग निवृत्त होता है और कुपथ्य से उसका प्रकोप होकर रोग बढ़ जाता है, इससे मेरे रोग के अनुसार औषध करो। मेरा रोग सुनिये कि जरा और मृत्यु मुझको बड़ा रोग है। उसके नाश की औषध मुझको दीजिए। स्त्री आदिक सब भोग तो रोग के वृद्धिकर्ता हैं। जैसे अग्नि में घृत डालिये तो बढ़ जाती है वैसे ही भोग से जरा मृत्यु आदि रोग बढ़ते हैं। इससे इस रोग की निवृत्ति की औषधि करो, नहीं तो सबका त्याग कर मैं वन में जा रहूँगा। हे मुनीश्वर! जिसके स्त्री है उनको भोग की इच्छा भी होती है और जिसके स्त्री नहीं होती उसको स्त्री की इच्छा भी नहीं। जिसने स्त्री का त्याग किया है उसने संसार का भी त्याग किया है और वही सुखी है। संसार का बीज भी है इससे मुझको स्त्री की इच्छा नहीं। मुझको वही औषधि दीजिए जिससे जरा मृत्यु आदि रोग की निवृत्ति हो।

इतिश्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे दुराशावर्णनन्नामषोडशस्सर्गः॥१६॥