पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८०

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योगवाशिष्ठ।

अघमर्षण जाप कर रहे हैं और आपके आगमन की राह देखते हैं। हाथों में चमर लेकर सुन्दर कान्ता तुम्हारे सेवन के निमित्त खड़ी हैं और भोजन-शाला में भोजन सिद्ध हो रहा है, इससे शीघ्र उठिये और जो कार्य है वह कीजिये, जैसा काल होता है उसके अनुसार कर्म बड़े पुरुष करते हैं उनका त्याग नहीं करते। इससे काल व्यतीत न कीजिये। हे रामजी! जब इस प्रकार दासी ने कहा तब राजा ने विचारा कि संसार की जो विचित्र स्थिति है वह कितेक मात्र है राजसुखों से मुझको कुछ प्रयोजन नहीं, यह क्षणभंगुर है, इस सम्पूर्ण मिथ्या आडम्बर को त्यागके मैं एकान्त जा बैठता हूँ जैसे समुद्र तरङ्गों से रहित शान्तरूप होता है तैसे ही शान्तरूप होऊँगा। यह जो नाना प्रकार के राजभोग और क्रिया कर्म हैं उनसे अब मैं तृप्त हुआ हूँ और सब कमों को त्यागकर केवल सुख में स्थित होऊँगा। मेरा चित्त जिन भोगों से चञ्चल था वे भोग तो भ्रमरूप हैं इनसे शान्ति नहीं होती और तृष्णा बढ़ती जाती है। जैसे जल पर सेवाल बढ़ती जाती है और जल को टाँप लेती है तैसे ही तृष्णा दाँप लेती है। अब मैं इसको त्याग करता हूँ। हे चित्त! तू जिस-जिस दशा में गिरा है और जो-जो भोग भोगे हैं वे सब मिथ्या हैं, तृप्ति तो किसी से न हुई? इससे भ्रमरूप भोगों को जब मैं त्यागूंगा तब मैं परम सुखी होऊँगा बहुत उचित अनुचित भोग बारम्बार भोगे हैं परन्तु तृप्ति कभी न हुई, इससे हे चित्त! इनको त्याग करके परमपद के आश्रय हो जा। जैसे बालक एक को त्यागकर दूसरे को अङ्गीकार करता है तैसे ही यत्न विना तू भी कर। जव इन तुच्छ भोगों को त्यागेगा भौर परमपद का आश्रय करेगातव आनन्दी तृप्ति को प्राप्त होगा और उसको पाकर फिर संसारी न होगा। हे रामजी! इस प्रकार चिन्तन करके जनक तूष्णीम हो रहा और मन की चपलता त्याग करके सोमाकार से स्थित हुआ जैसे-मूर्ति लिखी होती है तैसे ही हो गया और प्रतिहारी भी भयभीत होकर फिर कुछ न कह सकी। इसके अनन्तर मन की समता के निमित्त फिर राजा ने चिन्तन किया कि मुझको ग्रहण और त्याग करने योग्य कुछ नहीं है, किसको मैं साधू और किस वस्तु में मैं धैर्य धारूँ, सब पदार्थ नाशरूप हैं मुझको