पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८२

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योगवाशिष्ठ।


वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार विचार के राजा यथाप्राप्त क्रिया के करने को उठ खड़ा हुआ और जो इष्ट अनिष्ट की वासना थी वह चित्त से त्याग दी। जैसे सुषुतिरूप पुरुष होता है तैसे ही वह जाप्रत में हो रहा। निदान दिन को यथाशास्त्र क्रिया करे और रात्रि को लीला करके ध्यान में स्थित हो। मन को समरस कर जब रात्रि क्षीण हुई तब इस प्रकार चित्त कोबोध किया कि हे चञ्चलरूप, चित्त। परमानन्दस्वरूप जो भात्मा है वह क्या तुमको सुखदायक नहीं भासता जो इस मिथ्या संसारसुख की इच्छा करता है। जब तेरी इच्छा शान्त हो जावेगी तब तू सार सुख आत्मपद को प्राप्त होगा। ज्यों-ज्यों तू सङ्कल्प लीला से उठता है त्यों-त्यों संसार जाल विस्तार होता जाता है। इस दुःखरूप संसार से तुझको क्या प्रयोजन है? हे मूर्ख, चित्त ज्यों-ज्यों सङ्कल्प (इच्छा) करता है त्यों-त्यों संसार का दुःख बढ़ता जाता है। जैसे जल सींचने से वृक्ष की शाखायें बढ़ती हैं तैसे ही संसार के सुखों से परिणाम में अधिक दुःख प्राप्त होता है। ऐसे दुःखरूप भोगों की इच्छा क्यों करता है? यह संसार चित्तजाल से उपजा है, जब तू इसका त्याग करेगा तब दुःख मिट जावेगा। फुरने का नाम दुःख है इसके मिटे से दुःख भी कोई न रहेगा। यह महाचंचल संसार देखने में सुन्दर है वास्तव में कुछ नहीं। जो तुझको इससे कुछ सार प्राप्त हो तो इसका माश्रय कर पर यह तो क्षणभंगुर है और दुःख की खानि है, इसकी आस्था त्याग, प्रात्मतत्त्व का आश्रय कर और शुद्ध निर्मल होकर जगत् में विचर, तब तुझको दुःख स्पर्श न करेगा। जगत् स्थित हो अथवा शान्त हो इसके उदय अस्त का वासना से इसके गुण-अवगुण में भासत मत हो। जो अविद्यमान असत्यरूप हो उसकी आस्था क्या करनी? यह असत्य रूप है और तू सत्यरूप है, असत्य और सत्य का सम्बन्ध कैसे हो? मृतक और जीते का कभी सम्बन्ध हुमा है? जो तू कहे कि चेतनतत्त्व ही दृश्यरूप होता है तो दोनों सत्यरूप हैं और विस्तृतरूप आत्मा ही हुमा तो हर्ष विषाद किसका करता है? इससे तू मूढ़ मत हो, समुद्र की नाई अक्षोभरूप अपने आपमें स्थित हो और संसार की भावना