पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८३

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उपशम प्रकरण।

त्याग करके मान मोह मल को त्याग कर। इसकी इच्छा ही दुःख का कारण है, इसको त्याग करके आत्मतत्त्व में स्थित हो तब पूर्णपद को प्राप्त होगा। इसलिये बल करके इसका आश्रय करके चञ्चलता को त्याग।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे चित्तानुशासन नाम एकादशस्सर्गः॥११॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार विचार करके राजा ने सब काम किये और आनन्दवृत्ति में उसका प्रबोधवान मन मोह को न प्राप्त हुआ। वह इष्ट में हर्षवान न हो और अनिष्ट में देषवान न हो केवल सम और स्वच्छ अपने स्वरूप में स्थित हुआ और जगत् में विचरने लगा,न कुछ त्याग करे, न कुछ ग्रहण करे औरन कुछ अङ्गीकार करे, केवल वीतशोक होकर सन्ताप से रहित वर्तमान में कार्य करे और उसके हृदय में कोई कल्पना स्पर्श न करे—जैसे आकाश को धूल की मलीनता स्पर्श नहीं करती। मलीनता से रहित अपने स्वरूप के अनुसंधान और सम्यक ज्ञान के अनन्त प्रकाश में उसका मन निश्चलता को प्राप्त हुआ, मन की जो संकल्पवृत्ति थी वह नष्ट हो गई भोर महाप्रकाशरूप चेतन भात्मा अना. मय हृदय में प्रकाशित हुआ। जैसे आकाश में सूर्य प्रकाशता है तैसे ही अनन्त आत्मा प्रकट हुआ और सम्पूर्ण पदार्थ उसमें प्रतिविम्वत देखे। जैसे शुद्ध मणि में प्रतिबिम्ब भासता है तैसे ही उसने सब पदार्थ अपने स्वरूप में प्रात्मभूत देखे, इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट विषयों की प्रीति में हर्ष खेद मिट गया और सर्वदा समान हो प्रकृत व्यवहार करके जीवन्मुक्त हो विचरने लगा। हे रामजी! जनक को ज्ञान की दृढ़ता हुई उससे लोकों के परावर को जानकर उसने विदेहनगर का राज्य किया और जीवों की पालना में हर्ष विषाद को न प्राप्त हुभा। वह संताप से रहित होकर कोई अर्थ उदय हो अथवाभस्त हो जावे परन्तु हर्ष शोक कदाचित् न करे और कार्यकर्ता दृष्टि भावे परन्तु हृदय से कुछ न करे। हे रामजी! तैसे ही तुम भी सब कार्य करो परन्तु निरन्तर प्रात्मस्वरूप में स्थित रहो। तुम जीवन्मुक्त वपु हो। राजा जनक की सब पदार्थ भावना अस्त हो गई थी, उसकी सुषुप्तिवत् वृत्ति हुई थी, भविष्यत् की इच्छा नहीं करता था