पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८९

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उपशम प्रकरण।

वह जो कुछ करता, भोगता, देता, लेता इत्यादिक क्रिया करता है सो करता हुआ भी कुछ नहीं करता। वह यथा प्राप्त कार्य में वर्तता है। और उसे अन्तःकरण में इष्ट अनिष्ट की भावना नहीं फुरती और कार्य में राग द्वैषवान होकर नहीं डूबता। जिसको सदा यह निश्चय रहता है कि सर्वचिदाकाशरूप है और जो भोगों के मनन से रहित है वह समता भाव को प्राप्त होता है। हे रामजी! मन जड़रूप है और आत्मा चेतनरूप है, उसी चेतन की सत्ता से जीव पदार्थों को ग्रहण करता है इसमें अपनी सत्यता कुछ नहीं। जैसे सिंह के मारे हुए पशु विल्ली भी खाने जाती है, उसको अपना बल कुछ भी नहीं, तैसे ही चेतन के बल से मन दृश्य का आश्रय करता है, आप असत्यरूप है चेतन की सत्ता पाकर जीता है, संसार के चिन्तवन को समर्थ होता है और प्रमाद से चिन्ता से तपायमान होता है। यह वार्ता प्रसिद्ध है कि मन जड़ है और चेतनरूपी दीपक से प्रकाशित है। चेतन सत्ता से रहित सब समान है और भात्म सत्ता से रहित उठ भी नहीं सकता। आत्मसत्ता को भुलाकर जो कुछ करता है उस फुरने को बुद्धिमान् कलना कहते हैं। जब वही कलना शुद्ध चेतनरूप आपको जानती है तब आत्मभाव को प्राप्त होता है और प्रमाद से रहित आत्मरूप होता है। चित्तकला जब चैत्य दृश्य से प्रस्फुर होती है उसका नाम सनातन ब्रह्म होता है और जब चैत्य के साथ मिलती है तब उसका नाम कलना होता है, स्वरूप से कुछ भिन्न नहीं केवल ब्रह्मतत्त्व स्थित है और उसमें भ्रान्ति से मन आदि भासते हैं। जब चेतनसत्ता दृश्य के सम्मुख होती है तब वही कलनारूप होती है और अपने स्वरूप के विस्मरण किये से और सङ्कल्प की भोर धावने से कलना कहाती है। वह भापको परिच्छिन्न जानती है उससे परिच्छिन हो जाती है और हेयोपादेय धर्मिणी होती है। हे रामजी! चित्तसत्ता अपने ही फरने से जड़ता को प्राप्त हुई है और जब तक विचार करके न जगावे जब तक स्वरूप में नहीं जागती इसी कारण सत्य शाखों के विचार और वैराग से इन्द्रियों का निग्रह करके अपनी कलना को आप जगावो सब जीवों की कलना विज्ञान और सम करके जगाने से ब्रह्म