पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९

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वैराग्य प्रकरण।

श्रीरामजी बोले, हे मुनीश्वर! बालक अवस्था तो महाजड़ और अशक्त है। जब युवावस्था आती है तब बाल्यावस्था का ग्रास कर लेती है और उसके अनन्तर जब वृद्धावस्था आती है तब शरीर जर्जरीभूत हो जाता है और बुद्धि क्षीण हो जाती है, फिर मृत्यु पाता है। हे मुनीश्वर! इस प्रकार अज्ञानी का जीना व्यर्थ है कुछ अर्थ की सिद्धि नहीं। जैसे नदी के तट पर के वृक्ष जल के प्रवाह से जर्जरीभूत हो जाते हैं वैसे ही वृद्धावस्था में शरीर जर्जरीभूत हो जाता है। जैसे पवन से पत्र उड़ जाते हैं वैसे ही वृद्धावस्था से शरीर नाश पाता है। जितने कुछ रोग हैं वह सब वृद्धावस्था में भा पास होते हैं और शरीर कृश होजाता है। उस समय स्त्री, पुत्रादिक भी सब वृद्ध का त्याग कर देते हैं। जैसे पके फल को वृक्ष त्याग देता है वैसे वृद्ध को कुटुम्ब त्याग देता है और जैसे बावले को देख के सब हँसके बोलते हैं कि इसकी बुद्धि जाती रही वैसे ही इसको भी देखके हँसते हैं। जैसे कमल का फूल बरफ पड़ने से जर्जरीभूत हो जाता है वैसे ही जरावस्था में पुरुष जर्जरीभाव को प्राप्त होता है, शरीर कुबड़ा हो जाता है, केश श्वेत हो जाते हैं और शक्ति क्षीण हो जाती है। जैसे चिरकाल के बड़े वृक्ष में घुन लगता है वैसे ही इसमें कुछ शक्ति नहीं रहती। हे मुनीश्वर! और भी सब कृत्य क्षीण हो जाती है परन्तु एक आसक्तिमात्र रहती है। जैसे बड़े वृक्ष पर उलूक आ रहते हैं वैसे ही इसमें क्रोध शक्ति आ रहती है और सव शक्तियाँ क्षीण होजाती हैं। हे मुनीश्वर! जरावस्था दुःख का घर है जब जरावस्था पाती है तब सब दुःख इकट्ठे होते हैं उनसे पुरुष महादीन होजाते हैं। युवावस्था में जो काम का बल रहता है सो भी जरा में क्षीण हो जाता है, इन्द्रियों की आसक्ति घट जाती है और उनकी चपलता का प्रभाव हो जाता है। जैसे पिता के निर्धन होने से पुत्र दीन हो जाता है वैसे ही शरीर के निर्वल होने से इन्द्रियाँ भी निर्बल हो जाती हैं केवल एक तृष्णा बढ़ जाती है। हे मुनीश्वर! जब जरारूपी रात्री आती है तब खाँसी रूपी स्यार आकर शब्द करते हैं और आधिव्याधिरूपी उलूक आकर निवास करते हैं। हे मुनीश्वर! ऐसी नीच वृद्धावस्था की मुझको इच्छा नहीं। जैसे फल से वृक्ष झुक जाता है वैसे ही बुढ़ापे से देह कुबड़ी हो जाती है।