पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९०

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योगवाशिष्ठ‌।

तत्त्व को प्राप्त होती है और इससे भिन्न मार्ग से भ्रमता रहता है। मोहरूपी मदिरा से जो पुरुष उन्मत्त होता है वह विषयरूपी गढ़े में गिरता है। सोई हुई कलना आत्मबोध से नहीं जगाते अमवोध ही रहते हैं सो चित्त कलना जड़ रहती है, जो भासती है तो भी असत्यरूप है। ऐसा पदार्थ जगत् में कोई नहीं जो संकल्प से कल्पित न हो, इससे तुम अजड़धर्मा हो जायो। कलना जड़ उपलब्धरूपिणी है और परमार्थसत्ता से विकाशमान होती है—जैसे सूर्य से कमल विकाशमान होता है। जैसे पाषाण की मूर्ति से कहिये कि तू नृत्य कर तो वह नहीं करती क्योंकि जड़रूप है, तैसे ही देह में जो कलना है वह चेतन कार्य नहीं कर सकती। जैसे मूर्ति का लिखा हुआ राजा गुर गुर शब्द करके युद्ध नहीं कर सकता और मूर्ति का चन्द्रमा औषध पुष्ट नहीं कर सकता तैसे ही कलना जड़ कार्य नहीं कर सकती। जैसे निरवयव अङ्गना से आलिंगन नहीं होता, संकल्प के रचे आकाश के वन की छाया से नीचे कोई नहीं बैठता और मृगतृष्णा के जल से कोई तृप्त नहीं होता तैसे ही जड़रूप मन क्रिया नहीं कर सकता। जैसे सूर्य की धूप से मृगतृष्णा की नदी भासती है तैसे ही चित्तकलना के फुरने से जगत् भासता है। शरीर में जो स्पन्दशक्ति भासती है वही पाणशक्ति है भोर प्राणों से ही बोलता, चलता, बैठता है। ज्ञानरूप संवित् जो आत्मतत्त्व है उससे कुछ भिन्न नहीं, जब संकल्पकला फुरती है तब 'अहं त्वं' इत्यादिक कलना से वही रूप हो जाता है और जब आत्मा और प्राण का फुरना इकट्ठा होता है अर्थात् प्राणों से चेतन संवित् मिलता है तब उसका नाम जीव होता है। और बुद्धि, चित्त, मन, सब उसी के नाम हैं। सब संज्ञा अज्ञान से कल्पित होती हैं। अज्ञानी को जैसे भासती है, तैसे ही उसको है, परमार्थ से कुछ हुआ नहीं, न मन है, न बुद्धि है, न शरीर है केवल आत्मामात्र अपने आप में स्थित है-देत नहीं। सब जगत प्रात्मरूप है और काल क्रिया भी सब अल्परूप है, भाकारा से भी निर्मल, अस्ति, नास्ति सब वही रूप है गौर दितीय फुरने से रहित हे इस कारण है और नहीं ऐसा स्थित है मौर सव रूप से सत्य है।