पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९१

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उपशम प्रकरण।

आत्मा सब पदों से रहित है इस कारण असत्य की नाई है और अनुभवरूप है इससे सत्य है और सब कलनामों से रहित केवल अनुभवरूप है। ऐसे अनुभव का जहाँ बान होता है वहाँ मन क्षीण हो जाता है—जैसे जहाँ सूर्य का प्रकाश होता है वहाँ अन्धकार क्षीण हो जाता है। जब आत्मसत्ता में संवित् करके इच्छा फुरती है तो वह संकल्प के सम्मुख हुई थोड़ी भी बड़े विस्तार को पाती है, तब चित्तकला को आत्मस्वरूप विस्मरण हो जाता है, जन्मों की चेष्टा से जगत् स्मरण हो पाता है और परम पुरुष को संकल्प से तन्मय होने करके चित्त नाम कहाता है। जब चित्तकला संकल्प से रहित होती है तब मोक्षरूप होता है। चित्तकला फरने का नाम चित्त और मन कहते हैं और दूसरी वस्तु कोई नहीं। एकतामात्र ही चित्त का रूप है और सम्पूर्ण संसार का बीज मन है। संकल्प के सम्मुख हो करके चेतन संवित् का नाम मन होता है और निर्विकल्प जो चित्तसत्ता है वह संकल्प करके मलीन होती है तब उसको कलना कहते हैं। वही मन जब घटादिक की नाई परिच्छिन्न भेद को प्राप्त होता है तब क्रियाशक्ति से अर्थात् प्राण और बान शक्ति से मिलता है, उस संयोग का नाम संकल्प विकल्प का कर्ता मन होता है। वही जगत् का बीज है और उसके लीन करने के दो उपाय हैंएक तत्त्वज्ञान दूसरा प्राणों का रोकना। जब पाणशक्ति का निरोध होता है तब भी मन लीन हो जाता है और जब सत्य शाखों के द्वारा ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान होता है तो भी लीन हो जाता है। प्राण किसका नाम है और मन किसको कहते हैं? हृदयकोश से निकलकर जो बाहर पाता है और फिर बाहर से भीतर पाता है वह प्राण है, शरीर बैठा है और वासना से जो देश देशान्तर भ्रमता है उसका नाम मन होता है, उसको वैराग और योगाभ्यास से वासना से रहित करना और प्राणवायु को स्थित करना ये दोनों उपाय हैं। हे रामजी! जव तत्त्वज्ञान होता है तब मन स्थित हो जाता है क्योंकि प्राण और चित्तकला का मापस में वियोग होता है और जव प्राण स्थित होता है तब भी मन स्थिर हो जाता है, क्योंकि प्राण स्थित हुए चेतनकला से नहीं मिलते तब मन भी स्थित हो जाता है और नहीं