पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८६
योगवाशिष्ठ।

रहता। मनचेतनकला औरमाण फरने बिना नहीं रहता। मन को भी अपनी सत्ताशक्ति कुछ नहीं, स्पन्दरूप जोशक्ति है वह प्राणों को है सो चलरूप जड़ात्मक है और आत्मसत्ता चेतनरूप है और वह अपने आपमें स्थित है। चेतनशक्ति और स्पन्दशक्ति के सम्बन्ध होने से मन उपजा है सो उस मन का उपजना भी मिथ्या है। इसी का नाम मिथ्यावान है। हे रामजी! मैंने तुमसे अविद्या जो परम अज्ञानरूप संसाररूपी विष के देनेवाली है कही है। चित्तशक्ति और स्पन्दशक्ति का सम्बन्ध संकल्प से कल्पित है, जो तुम संकल्प न उठाभो तो मन संज्ञा क्षीण हो जावेगी। इससे संसारभ्रम से भयवान मत हो जब स्पन्दरूप प्राण को चित्तसत्ता चेतती है तब चेतने से मन चित्तरूप को प्राप्त होता है और अपने फुरने से दुःख प्राप्त होता है जैसे बालक अपनी परछाही में वैताल कल्प कर भयवान होता है। अखण्डमण्डलाकार जो चेतनसत्ता सर्वगत है उसका सम्बन्ध किस के साथ हो और अखण्डशक्ति उनिद्ररूप आत्मा को कोई इकट्ठा नहीं कर सकता इसी कारण सम्बन्ध का अभाव है। जो सम्बन्ध ही नहीं तो मिलना किससे हो भौर मिलाप न हुआ तो मन की सिद्धता क्या कहिये? चित्त और स्पन्द की एकता मन कहाती है मन और कोई वस्तु नहीं। जैसे रथ, घोड़ा, हस्ति, प्यादा इनके सिवा सेना का रूप और कुछ नहीं, तेसे ही चित्त स्पन्द के सिवा मन का रूप और कुछ नहींइस कारण दुष्टरूप मन के समान तीनों लोकों में कोई नहीं। जब सम्यज्ञान हो तव मृतकरूप मन नष्ट हो जाता है मिथ्या अनर्थ का कारण चित्त है इसको मत धरो अर्थात् संकल्प का त्याग करो। हे रामजी! मन का उपजना मिथ्या है, परमार्थ से नहीं। संकल्प का नाम मन है इस कारण कुछ है नहीं। जैसे मृगतृष्णा की नदी मिथ्या भासती है तैसे ही मन मिथ्या है हृदयरूपी मरुस्थल है, चेतनरूप सूर्य है और मनरूपी मृगतृष्णा का जल भासता है। जब सम्यक्ज्ञान होता है तब इसका प्रभाव हो जाता है। मन जड़ता से निःस्वरूप है और सर्वदा मृतकरूप है उसी मृतक ने सब लोगों को मृतक किया है। यह बड़ा आश्चर्य है कि भङ्ग भी कुछ नहीं, देह भी नहीं भौर न आधार है, न आधेय है पर