पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९५

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उपशम प्रकरण।

किया है? हे रामजी! मूढ़ को देखकर मैं दया करता और तपता हूँ कि ये क्यों खेद पाते हैं? और वह दुःखदायक कौन है जिससे वे तपते हैं? जैसे उष्ट्र कण्टक के वृक्षों की परम्परा को प्राप्त होता है तैसे ही मूढ़ प्रमाद से दुखों की परम्परा पाता है और वह दुर्बुद्धि देह पाकर मर जाता है। जैसे समुद्र में बुदबुदे उपजकर मिट जाते हैं तैसे ही संसारसमुद्र में उपजकर वह नष्ट हो जाता है, उसका शोक करना क्या है, वह तो तुच्छ और पशु से भी नीच है? तुम देखो कि दशों दिशाओं में पशु आदिक होते हैं और मरते हैं उनका शोक कौन करता है? मच्छरा-दिक जीव नष्ट हो जाते हैं और जलचर जल में जीवों को भक्षण करते हैं उनका विलाप कौन करता है? आकाश में पक्षी मृतक होते हैं उनका कौन शोक करता है? इसी प्रकार अनेक जीव नष्ट होते हैं उनका विलाप कुछ नहीं होता, तैसे ही अब जो हैं उनका विलाप न करना, क्योंकि कोई स्थित न रहेगा सब नाशरूप और तुच्छ हैं। सबका प्रति-योगी काल है और अनेक जीवों को भोजन करता है। जूँ आदिकों को मक्षिका और मच्छर आदिक खाते हैं और मक्षिका मच्छरादिकों को दादुर खाते हैं, मेढकों को सर्प, सर्पों को नेवला, नेवले को बिल्ली, बिल्ली को कुत्ते, कुत्तों को भेड़िया, भेड़ियों को सिंह, सिंहों को सरभ और सरभ को मेघ की गर्जना नष्ट करती है। मेघ को वायु, वायु को पर्वत, पर्वत को इन्द्र का वज्र और इन्द्र के वज्र को विष्णुजी का सुदर्शन-चक्र जीत लेता है और विष्णु भी अवतारों को धरके सुख दुःख जरा-मरण संयुक्त होते हैं। इसी प्रकार निरन्तर भूतजाति को काल जीर्ण करता है, परस्पर जीव जीवों को खाते हैं और निरन्तर नाना प्रकार के भूतजात दशों दिशाओं में उपजते हैं। जैसे जल में मच्छ, कच्छ, पृथ्वी में कीट आदि, अन्तरिक्ष में पक्षी, वनवीथी में सिंहादिक, मृग-स्थावर में पिपीलिका, दर्दुर, कीटादि विष्ठा में कृमि और नाना प्रकार के जीवगण इसी प्रकार निरन्तर उपजते और मिट जाते हैं। कोई हर्षवान् होता है, कोई शोकवान् होता है कोई रुदन करता है और कोई सुख और दुःख मानते हैं। पापी पापों के दुःख से निरन्तर मरते हैं