पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९६

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योगवाशिष्ठ।

और सृष्टि में उपजते और नष्ट होते हैं। जैसे वृक्ष से पत्ते उपजते हैं तैसे ही कितने भूत उपजकर नष्ट हो जाते हैं, उनकी कुछ गिनती नहीं। जो बोधवान् पुरुष हैं वे अपने आपसे आप पर दया करके आपको संसार-समुद्र से पार करते हैं। हे रामजी! और जितने जीव हैं वे पशुवत् हैं, मूढ़ों और पशुओं में कुछ भेद नहीं। और उनको हमारी कथा का उपदेश नहीं। वे पशुधर्मा इस वाणी के योग्य नहीं, देखनेमात्र मनुष्य हैं परन्तु मनुष्य का अर्थ उनसे कुछ सिद्ध नहीं होता। जैसे उजाड़ वन में ठूँठ वृक्ष छाया और फल से रहित किसी को विश्रामदायक नहीं होते तैसे ही मूढ़ जीवों से कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता। जैसे गले में रस्सी डाल-कर पशु को जहाँ खैंचते हैं वहाँ चले जाते हैं तैसे ही जहाँ चित्त खैंचता है वे वहीं चले जाते हैं। मूढ़ जीव पशुवत् विषयरूपी कीच में फँसे हैं और उससे बड़ी आपदा को प्राप्त होते हैं। उन मूढ़ों को आपदा में देखके पाषाण भी रुदन करते हैं। जिन मूर्खों ने अपने चित्त को नहीं जीता उनको दुःखों के समूह प्राप्त होते हैं और जिन्होंने चित्त को बन्धन से निकाला है वे संपदावान् हैं, उनके सब दुःख मिट जाते हैं और वे संसार में फिर नहीं जन्मते। इससे अपने चित्त के जीते बिना दुःख नष्ट नहीं होते। जो चित्त जीतने से परमसुख प्राप्त होता तो बुद्धिमान इसमें न प्रवर्त्तते पर बुद्धिमान् इसके जीतने में प्रवर्त्तते है इससे जानिये कि चित्त भी वश होता है और मनरूपी भ्रम के नष्ट हुए आत्मसुख प्राप्त होता है। हे रामजी! मन भी कुछ है नहीं मिथ्याभ्रम से कल्पित है। जैसे बालक को अपनी परछाहीं में वैतालबुद्धि होती है और उससे वह भय-वान् होता है तैसे ही भ्रमरूप मन से जीव नष्ट होते हैं। जब तक आत्मसत्ता का विस्मरण है तब तक मूढ़ता है और हृदय में मनरूप सर्प विराजता है, जब अपना विवेकरूपी गरुड़ उदय हो तब वे नष्ट हो जाते हैं। अब तुम जगे हो और ज्यों का त्यों जानते हो। हे शत्रु-नासक, रामजी! अपने ही संकल्प से चित्त बढ़ता है। इसलिए उस संकल्प का शीघ्र ही त्याग करो तब चित्त शान्त होगा। जो तुम दृश्य का आश्रय करोगे तो बन्धन होगा और अहंकार आदिक दृश्य