पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९७

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उपशम प्रकरण।

का त्याग करोगे तो मोक्षवान् होगे। यह गुणों का सम्बन्ध मैंने तुमसे कहा है कि दृश्य का आश्रय करना बन्धन है और इससे रहित होना मोक्ष है। आगे जैसी इच्छा हो वैसी करो। इस प्रकार ध्यान करो कि न मैं हूँ और न यह जगत् है। मैं केवल अचलरूप हूँ। ऐसे निःसंकल्प होने से आनन्द चिदाकाश हृदय में आ प्रकाशेगा। आत्मा और जगत् में जो विभाग कलना आ उदय हुई है वही मल है। इस द्वैतभाव के त्याग किये से जो शेष रहेगा उसमें स्थित हो। आत्मा और जगत् में अन्तर क्या है। द्रष्टा और दृश्य के अन्तर जो दर्शन और अनु-भवसत्ता है सर्वदा उसी की भावना करो और स्वाद और अस्वाद लेने-वाले का त्यागकर उनके मध्य जो स्वादरूप है उसमें स्थिर हो। वही आत्मतत्त्व है उनमें तन्मय हो जाओ। अनुभव जो द्रष्टा और दृश्य है उसके मध्य में जो निरालम्ब साक्षीरूप आत्मा है उसी में स्थित हो जाओ हे रामजी! संसार भाव अभावरूप है उसकी भावना को त्याग करो और भावरूप आत्मा की भावना करो वही अपना स्वरूप है। प्रपञ्चदृश्य को त्याग किये से जो वस्तु अपना स्वरूप है वही रहेगा-जो परमानन्द स्वरूप है। चित्तभाव को प्राप्त होना अनन्त दुःख है और चित्तरूपी संकल्प ही बन्धन है, उस बन्धन को अपने स्वरूप के ज्ञानयुक्त बल से काटो तब मुक्ति होगी। जब आत्मा को त्यागकर जगत् में गिरता है तब नाना प्रकार संकल्प विकल्प दुःखों में प्राप्त होता है। जब तुम आत्मा को भिन्न जानोगे तब मन दुःख के समूह संयुक्त प्रकट होगा और व्यतिरेक भावना त्यागने से सब मन के दुःख नष्ट हो जायेंगे। यह सर्व आत्मा है-आत्मा से कुछ भिन्न नहीं, जब यह ज्ञान उदय हो तब चैत्य चित्त और चेतना-तीनों का अभाव हो जावेगा। मैं आत्मा नहीं-जीव हूँ इसी कल्पना का नाम चित्त है। इससे अनेक दुःख प्राप्त होते हैं। जब यह निश्चय हुआ कि मैं आत्मा हूँ-जीव नहीं, वह सत्य है कुछ भिन्न नहीं इसी का नाम चित्त उपशम है। जब यह निश्चय हुआ कि सब आत्मतत्त्व है आत्मा से कुछ भिन्न नहीं तब चित्त शान्त हो जाता है इसमें कुछ संशय नहीं। इस प्रकार आत्मबोध करके मन नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य के उदय हुए तम नष्ट