पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९८

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योगवाशिष्ठ।

हो जाता है। मन सब शरीरों के भीतर स्थिर है, जबतक रहता है तबतक जीव को बड़ा भय होता है। यह जो परमार्थयोग मैंने तुमसे कहा है इससे मन को काट डालो। जब मन का त्याग करोगे तब भय भी न रहेगा। यह चित्त भ्रममात्र उदय है। चित्तरूपी वैताल का सम्यक् ज्ञानरूपी मन्त्र भाव हो जाता है। हे बलवानों में श्रेष्ठनिष्पाप रामजी! जब तुम्हारे हृदयरूपी गृह में से चित्तरूपी वैताल निकल जावेगा तब तुम दुःखों से रहित और स्थित होगे और फिर तुम्हें भय उद्वेग कुछ न व्यापेगा। अब तुम मेरे वचनों से वैरागी हुए हो और तुमने मन को जीता है। इस विचार विवेक से चित्त नष्ट और शान्त हो जाता है और निर्दुःख आत्म-पद को प्राप्त होता है। सब एषणा को त्याग करके शान्तरूप स्थित हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे चित्तचैत्यरूपवर्णन-
न्नाम चतुर्दशस्सर्गः ॥ १४ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। इस प्रकार तुम देखो कि चित्त आप विचित्ररूप है और संसाररूपी बीज की कणिका है। जीवरूपी पक्षी के बंधन का जाल संसार है। जब चित्त संवित् आत्मसत्ता को त्यागता है तब दृश्यभाव को प्राप्त होता है और जब चित्त उपजता है तब कलना-रूप मल धारण करता है। वह चित्त बढ़कर मोह उपजता है, मोह संसार का कारण होता है और तृष्णारूपी विष की बेल प्रफुल्लित होती है उससे मूर्च्छित हो जाता है और आत्मपद की ओर सावधान नहीं होता। ज्यों-ज्यों तृष्णा उदय होती है त्यों-त्यों मोह को बढ़ाती है। तृष्णारूपी श्यामरात्रि अनन्त अन्धकार को देती है, परमार्थसत्ता को ढाँप लेती हैं और प्रलयकाल की अग्निवत् जलाती है उसको कोई संहार नहीं सकता वह सबको व्याकुल करती है। तृष्णारूपी तीक्ष्ण खङ्ग की धारा दृष्टिमात्र कोमल शीतल और सुन्दर है पर स्पर्श करने से नाश कर डालती है और नेक संकट देती है। जो बड़े असाध्य दुःख हैं व जिनकी प्राप्ति पापों से होती है वे तृष्णारूपी फूल का फल हैं। तृष्णारूपी कुतिया चित्तरूपी गृह में सदा रहती है, क्षण में बड़े हुलास को प्राप्त होती है और क्षण में शून्यरूप हो जाती है और बड़े ऐश्वर्यसंयुक्त है।