पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६००

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योगवाशिष्ठ।

नाम मन है। जब इसका नाश हो तब सब तृष्णा नाश हो जावे अहं त्वं, इदं इत्यादिक चिन्तन मत करो, यह महामोहमय दृष्टि है, इसको त्याग करके एक अद्वैत आत्मा की भावना करो। अनात्मा में जो मात्मभाव है वह दुःखों का कारण है। इसके त्यागने से ज्ञानवानों में प्रसिद्ध होगे। अभावरूपी अपवित्र भावना है उसको अपने स्वरूप शलाका की भावनारूप से काट डालो। यह भावना पञ्चम भूमिका है, वहाँ संसार का अभाव है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे तृष्णावर्णनन्नाम पञ्चदशस्सर्गः॥ १५ ॥

रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! ये आपके वचन गम्भीर और तोल से रहित हैं। आप कहते हैं कि अहंकार और तृष्णा मत करो। जो अहं- कार त्यागें तो चेष्टा कैसे होगी? तब तो देह का भी त्याग हो जावेगा। जैसे वृक्ष स्तम्भ के आश्रय होते हैं। स्तम्भ के नाश हुए वृक्ष नहीं रहते तैसे ही देह अहंकार धारण कर रहा है, उससे रहित देह गिर जावेगी, इससे मैं अहंकार को त्याग करके कैसे जीता रहूँगा? यह अर्थ मुझको निश्चय करके कहिये, क्योंकि आप कहनेवालों में श्रेष्ठ हैं। वशिष्ठजी बोले, हे कमलनयन, रामजी! सर्व ज्ञानवानों ने वासना का त्याग किया है सो दो प्रकार का है। एक का नाम ध्येयत्याग है और दूसरे का नाम नेयत्याग है। मैं यह पदार्थरूप हूँ, मैं इनसे जीता हूँ, इन बिना मैं नहीं जीता और मेरे सिवा यह भी कुछ नहीं, यह जो हृदय में निश्चय है उसको त्यागकर मैंने विचार किया है कि न मैं पदार्थ हूँ और न मेरे पदार्थ हैं। ऐसी भावना करनेवाले जो पुरुष हैं उनका अन्तःकरण आत्मप्रकाश में शीतल हो जाता है और वे जो कुछ क्रिया करते हैं वह लीलामात्र है। जिस पुरुष ने निश्चय करके वासना का त्याग किया है वह सर्व क्रियाओं में सर्व आत्मा जानता है। उसको कुछ बन्धन का कारण नहीं होता, उसके हृदय में सर्व वासना का त्याग है और बाहर इन्द्रियों से चेष्टा करता है। जो पुरुष जीवन्मुक्त कहाता है उसने जो वासना का त्याग किया है उस वासना के त्याग का नाम ध्येयत्याग है और जिस पुरुष ने मनसंयुक्त देहवासना का त्याग किया है और उस