पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०१

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उपशम प्रकरण।

वासना का भी त्याग किया है वह नेयत्याग है। नेयवासना का त्याग से विदेहमुक्त कहाता है। जिस पुरुष ने देहाभिमान का त्याग किया है, संसार की वासना लीला से त्याग की है और स्वरूप में स्थित होकर क्रिया भी करता है वह जीवन्मुक्त कहाता है। जिसकी सब वासनायें नाश हुई हैं और भीतर बाहर की चेष्टा से रहित हुआ है अर्थात् हृदय का संकल्प और बाहर की क्रिया त्यागी है उसका नाम त्याग है-वह विदेहमुक्त जानो। जिसने ध्येयवासना का त्याग किया है और लीला करके कर्त्ता हुआ स्थित है वह जीवन्मुक्त महात्मा पुरुष जनकवत् हैं। जिसने नेयवासना त्यागी है और उपशमरूप हो गया है वह विदेहमुक्त होकर परमतत्त्व में स्थित है। परात्पर जिसको कहते हैं वही होता है। हे राघव! इन दोनों वासनाओं को त्यागकर ब्रह्म में यह हो जाता है। वे विगतसन्ताप उत्तमपुरुष दोनों मुक्तस्वरूप हैं और निर्मल पद में स्थित होते हैं। एक की देह स्फुरणरूप होती है और दूसरे की अस्फुर होती है। वह विदेहमुक्तरूप देह में स्थित होता है और क्रिया करता सन्ताप से रहित जीवन्मुक्त ज्ञान को धरता है और फिर दूसरी देह त्याग के विदेह-पद में स्थित होता है, उसके साथ वासना और देह दोनों नहीं भासते। इससे विदेहमुक्त कहाता है। जीवन्मुक्त के हृदय में वासना का त्याग है और बाहर क्रिया करता है। जैसे समय से सुख दुःख प्राप्त होता है तैसे ही वह निरन्तर राग द्वेष से रहित प्रवर्तता है और सुख में हर्ष नहीं दुःख में शोक नहीं करता वह जीवन्मुक्त कहाता है। जिस पुरुष ने संसार के इष्ट अनिष्ट पदार्थों की इच्छा त्यागी है सो सब कार्य में सुषुप्ति की नाई अचल वृत्ति है, वह जीवन्मुक्त कहाता है। हेयोपादेय, मैं और मेरा इत्यादि सब कलना जिसके हृदय से क्षीण हो गई हैं वह जीवन्मुक्त कहाता है जिसकी वृत्ति सम्पूर्ण पदार्थों से सुषुप्ति की नाई हो गई हैं। जिसका चित्त सदा जाग्रत है और जो कलना क्रिया संयुक्त भी दृष्टि जाता है परन्तु हृदय से आकाशवत् निर्मल है वह जीवन्मुक्त पूजने योग्य है। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब वशिष्ठजी ने कहा तब सूर्य भगवान् अस्त हुए, सभा के सब लोग स्नान के निमित्त परस्पर