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योगवाशिष्ठ।

नमस्कार करके उठे और रात्रि व्यतीत करके सूर्य उदय होते ही परस्पर नमस्कार करके यथायोग्य अपने अपने आसन पर मा बैठे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे तृष्णाचिकित्सोपदेशो
नाम षोडशस्सर्गः॥ १६ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो पुरुष विदेहमुक्त है वह हमारी वाणी का विषय नहीं, इससे तुम जीवन्मुक्त का ही लक्षण सुनो। जो कुब प्रकृत कर्म है उसको जो करता है परन्तु तृष्णा और अहंकार से रहित है और निरहंकार होकर विचरता है वह जीवन्मुक्त है। दृश्य पदार्थों में जिसकी दृढ़ भावना है वह तृष्णा से सदा दुःखी रहता है और संसार के दृढ़ बन्धन से बन्ध कहाता है और जिसने निश्चय करके हृदय से संकल्प का त्याग किया है और बाहर से सब व्यवहार करता है वह पुरुष जीवन्मुक्त कहाता है। जो बाहर जगत् में बड़े आरम्भ करता है और इच्छासंयुक्त दृष्टि आता है पर हृदय में सब अर्थों की वासना और तृष्णा से रहित है वह मुक्त कहाता है। जिस पुरुष की भोगों की तृष्णा मिट गई हैं और वर्तमान में निरन्तर विचरता है वह निर्दुःख निष्कलङ्क कहाता है। हे महाबुद्धिमान्! जिसके हृदय में इदं अहंकार निश्चय है और जो उसको धारकर संसार की भावना करता है उसको तृष्णारूप जंजीर से बँधा और कलना से कलङ्कित जानो। इससे तुम, मैं और मेरा, सत् और असत्य बुद्धि संसार के पदार्थों का त्याग करो और जो परम उदार पद है सर्वदा काल उसमें स्थित हो जाओ। बन्ध, मुक्त, सत्य, असत्य की कल्पना को त्याग के समुद्रवत् अक्षोभचित्त स्थित हो, न तुम पदार्थ जाल हो, न यह तुम्हारे हैं, असत्यरूप जानके इनका विकल्प त्यागो। यह जगत् भ्रातिमात्र है और इसकी तृष्णा भी भ्रान्तिमात्र है, इनसे रहित आकाश की नाई सन्मात्र तुम सत्यस्वरूप हो और तृष्णा मिथ्या-रूप है। तुम्हारा और इसका क्या संग है? हे रामजी ! जीव को चार प्रकार का निश्चय होता है और वह बड़े आकार को प्राप्त होता है। चरणों से लेकर मस्तक पर्यन्त शरीर में आत्मबुद्धि होना और माता पिता से उत्पन्न हुआ जानना, यह निश्चय बन्धनरूप है और असम्यकू दर्शन