पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०३

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उपशम प्रकरण।

(भ्रान्ति) से होता है। यह प्रथम निश्चय है। द्वितीय निश्चय यह है कि मैं सब भावों और पदार्थों से प्रतीत हूँ, बाल के अग्र से भी सूक्ष्म हूँ और साक्षीभूत सूक्ष्म से अतिसुक्ष्म हूँ। यह निश्चय शान्तिरूप मोक्ष को उप-जाता है। जो कुछ जगत् जाल है वह सब पदार्थों में मैं ही हूँ और आत्मा-रूप में अविनाशी हूँ। यह तीसरा निश्चय है, यह भी मोक्षदायक है। चौथा निश्चय यह है कि मैं असत्य हूँ और जगत् भी असत्य है, इनसे रहित प्रकाश की नाई सन्मात्र है। यह भी मोक्ष का कारण है। हे रामजी! ये चार प्रकार के निश्चय जो मैंने तुमसे कहे हैं उनमें से प्रथम निश्चय बन्धन का कारण है और बाकी तीनों मोक्ष के कारण हैं और वे शुद्ध भावना से उपजते हैं। जो प्रथम निश्चयवान् है वह तृष्णारूप सुगन्ध से संसार में भ्रमता है और बाकी तीनों भावना शुद्ध जीवन्मुक्त विलासी पुरुष की हैं। जिसको यह निश्चय है कि सर्वजगत् में आत्म-स्वरूप हूँ उसको तृष्णा और रागदेष फिर नहीं दुःख देते। अधः, ऊर्ध्व, मध्य में आत्मा ही व्यापा है और सब मैं ही हूँ, मुझसे कुछ भिन्न नहीं है, जिसके हृदय में यह निश्चय है वह संसार के पदार्थों में बन्धायमान नहीं होता। शून्य प्रकृति माया, ब्रह्मा, शिव, पुरुष, ईश्वर सब जिसके नाम हैं वह विज्ञानरूप एक आत्मा है। सदा सर्वदा एक अद्वैत आत्मा मैं हूँ, द्वैतभ्रम चित्त में नहीं है और सदा विद्यमान सत्ताव्यापक रूप हूँ। ब्रह्मा से यदि तृण पर्यन्त जो कुछ जगत्जाल है वह सब परिपूर्ण आत्म-तत्त्व भर रहा है-जैसे समुद्र में तरङ्ग और बुदबुदे सब जलरूप हैं तैसे ही सब जगत् जाल आत्मरूप ही है। सत्यस्वरूप आत्मा से द्वैत कुछ वस्तु नहीं है जैसे बुदबुदे और तरङ्ग कुछ समुद्र से भिन्न नहीं हैं और भूषण स्वर्ण से भिन्न नहीं होते तैसे ही आत्मसत्ता से कोई पदार्थ भिन्न नहीं। द्वैत और अद्वैत जो जगतरचना में भेद है वह परमात्मा पुरुष की स्फुरण शक्ति है और वही द्वैत और अद्वैतरूप होकर भासती है। यह अपना है, वह और का है, यह भेद जो सर्वदा सब में रहता है और पदार्थों के उपजने और मिटने में सुख-दुःख भासता है उनको मत ग्रहण करो, भावरूप अद्वैत आत्मसत्ता का आश्रय करो और भ्रमद्वैत को त्याग करके