पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०६

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योगवाशिष्ठ।

राग और निर्वासनिक हो रहो। बाहर सब आचारवान् होकर लोगों में विचरो और सर्वदिशा और अवस्था को भली प्रकार विचारकर उनमें जो अतुच्छ पद है उसका आश्रय करो पर भीतर सब पदार्थों से नीरस और बाहर इच्छा के सम्मुख हो। भीतर शीतल रहो और बाहर तपायमान हो, बाहर से सब कार्यों का प्रारम्भ करो और हृदय से सब आरम्भ हो विवर्जित हो रहो। हे रामजी! अब तुम ज्ञानवान् हुए हो और सब पदार्थों की भावना का तुम्हें अभाव हुआ है, जैसे इच्छा हो तैसे विचरो। जब इन्द्रियों का इष्टपदार्थ हो आवे तब कृत्रिम हर्षवान् होना और दुःख आय प्राप्त हो तब कृत्रिम शोक करना। क्रिया का आरम्भ करना और हृदय में सारभूत रहना अर्थात् बाहर क्रिया करो पर भीतर अहंकार से रहित आकाशवत् निर्मल रहो। कार्यकलना से रहित होकर जगत् में विचरो और आशारूप फाँसी से मुक्त होकर इष्ट अनिष्ट से हृदय में सम रहो और बाहर कार्य करते लोगों में बिचरो। इस चेतन पुरुष को वास्तव में न बन्ध है और न मोक्ष है, मिथ्या इन्द्रजालवत् बन्धमोक्ष संसार का बर्तना है। सब जगत् भ्रान्तिमात्र है पर प्रमाद से जगत् भासता है। जैसे तीक्ष्ण धूप से मरुस्थल में जल भासता है तैसे ही अज्ञान से जगत् भासता है। आत्मा अबन्ध और सर्वव्यापकरूप है, उसे बन्ध कैसे हो और जो बन्ध नहीं तो मुक्त कैसे कहिये। आत्मतत्त्व के अज्ञान से जगत् भासता है और तत्त्वज्ञान से लीन हो जाता है- जैसे रस्सी के अज्ञान से सर्प भासता है। और रस्सी के जाने से सर्प लीन हो जाता है। हे रामजी! तुम जो ज्ञानवान् हुए हो और अपनी सूक्ष्मबुद्धि से निरहंकार हुए हो व आकाश की नाई निर्मल स्थित हो रहो। जो तुम असत्यरूप हो तो संपूर्ण मित्र भ्रात भी तैसे ही हैं उनकी ममता को त्याग करो, क्योंकि जो आप ही कुछ न हुआ तो भावना किसकी करेगा और जो तुम सत्यरूप हो तो अत्यन्त सत्य आत्मा की भावना करके दृश्य जगत् की कलना से रहित हो। यह जो 'अहं' 'मम' भोगवासना जगत् में है वह प्रमाद से भासती है और 'अहं' 'मम' और बान्धवों का शुभकर्म आदिक जो जगत्जाल भासता है इनसे आत्मा का कुछ संयोग नहीं तुम क्यों शोकवान होते हो? तुम