पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०७

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उपशम प्रकरण।

आत्मतत्त्व की भावना करो, तुम्हारा सम्बन्ध किसी से नहीं-यह प्रपञ्च भ्रममात्र है। जो निराकार अजन्मा पुरुष हो उसको पुत्र बान्धव दुःख सुख का क्रम कैसे हो? तुम स्वतः अजन्मा, निराकार, निर्विकार हो तुम्हारा सम्बन्ध किसी से नहीं, तुम इनका शोक काहे को करते हो? शोक का स्थान वह होता है जो नाशरूप हो सो न तो कोई जन्मता है और न मरता है मोर जो जन्म मरण भी मानिये तो मात्मा उसको सत्ता देनेवाला है जो इस शरीर के आगे और पीछे भी होगा। आगे जो तुम्हारे बड़े बुद्धिमान, सात्त्विकी और गुणवान् अनेक बान्धव व्यतीत हुए हैं उनका शोक क्यों नहीं करते? जैसे वे थे तैसे ही तो ये भी हैं? जो प्रथम थे वे अब भी हैं। तुम शान्तरूप हो, इससे मोह को क्यों प्राप्त होते हो जो सत्यस्वरूप है उसका न कोई शत्रु है और न वह नाश होता है। जो तुम ऐसे मानते हो कि मैं अब हूँ आगे न हूँगा तो भी वृथा शोक क्यों करते हो? तुम्हारा संशय तो नष्ट हुआ है, अपनी प्रकृति में हर्ष शोक से रहित होकर विचरो और संसार के सुख दुःख में समभाव रहो। परमात्मा व्यापकरूप सर्वत्र स्थित है और उससे कुछ भिन्न नहीं। तुम आत्मा आनन्द आकाशवत् स्वच्छ विस्तृत और नित्य शुद्ध प्रकाशरूप हो जगत् के पदार्थों के निमित्त क्यों शरीर सुखाते हो? सर्व पदार्थ जाति में एक आत्मा व्यापक है-जैसे मोती की माला में एक तागा व्यापक होता है तैसे ही आत्मा अनुस्यूत है, ज्ञानवानों को सदा ऐसे ही भासता है और अज्ञानियों को ऐसे नहीं भासता। इससे ज्ञानवान् होकर तुम सुखी रहो। यह जो संसरणरूप संसार भासता है वह प्रमाद से सारभूत हो गया है। तुम तो ज्ञानवान् और शान्त-बुद्धि हो। दृश्य भ्रममात्र संसार का क्या रूप है? भ्रम और स्वप्नमात्र-से कुछ भिन्न नहीं। स्वप्न में जो क्रम और जो वस्तु है, सब मिथ्या ही है तैसे ही यह संसार है। सर्वशक्ति जो सर्वात्मा है उसमें जो भ्रममात्र शक्ति उससे यह संसारमाया उठी है, सो सत्य नहीं है। वास्तव में पूछो तो केवल ज्ञानस्वरूप एक आत्मसत्ता ही स्थित है। जैसे सूर्य प्रका-शता है तो उसको न किसी से विरोध है और न किसी से स्नेह है, तैसे ही