पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०८

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योगवाशिष्ठ।

वह सर्वरूप, सर्वत्र सर्वदा सबका ईश्वर है उस सत्ता का आभास संवेदन स्फूर्ति है और उससे नानारूप जगत् भासता है और भिन्न भिन्न रूप निरन्तर ही उत्पन्न होते हैं। जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते हैं तैसे ही देहधारी जैसी वासना करता है उसके अनुसार जगत् में उपजकर विचरता और चक्र की नाई भ्रमता है। स्वर्ग में स्थित जीव नरक में जाते हैं और जो नरक में स्थित हैं स्वर्ग में जाते हैं, योनि से योन्यन्तर और द्वीप से द्वीपान्तर जाते हैं और अज्ञान से धैर्यवान् कृपणता को प्राप्त होता है और कृपण धैर्य को प्राप्त होता है। इसी प्रकार भूत उबलते और गिरते हैं और अज्ञान से अनेक भ्रम को प्राप्त होते हैं पर आत्मसत्ता एकरूप, स्थित, स्थिर, स्वच्छ और अपने आपमें अचल है और दुःख, भ्रम उसमें कोई नहीं। जैसे अग्नि में बर्फ का कणका नहीं पाया जाता तैसे ही जो आत्मसत्ता में स्थित है उसको दुःख क्लेश कोई नहीं होता। उसका हृदय जो शीतल रहता है सो आत्मसत्ता की बढ़ाई है। संसार की यही दशा है कि जो बड़े बड़े ऐश्वर्य से सम्पन्न दृष्टि आते थे वे कितनेक दिन पीछे नष्ट होते देखे हैं। तुम और मैं इत्यादिक भावना आत्मा में मिथ्या भ्रम से भासती हैं। जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है तैसे ही ये बान्धव हैं, ये धन्य हैं यह मैं हूँ इत्यादिक मिथ्यादृष्टि तुम्हारी अब नष्ट हुई है। संसार की जो विचारदृष्टि है जिससे जीव नष्ट होते हैं उसे मूल से काटकर तुम जगत् में क्रिया करो। जैसे ज्ञानवान् जीवन्मुक्त संसार में विचरते हैं। तैसे ही विचरो-भारवाहक की नाई भ्रम में न पड़ना। जहाँ नाश करने-वाली वासना उठे वहाँ यह विचार करो कि यह पदार्थ मिथ्या है तब वह वासना शान्त हो जावेगी। यह बन्ध है, यह मोक्ष है, यह पदार्थ नित्य है इत्यादिक गिनती लघु चित्त में उठती हैं, उदारचित्त में नहीं उठतीं। उदारचित्त जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनके आचरण के विचारने में देहदृष्टि नष्ट हो जावेगी। ऐसे विचारो कि जहाँ मैं नहीं वहाँ कोई पदार्थ नहीं और ऐसा पदार्थ कोई नहीं जो मेरा नहीं, इस विचार से देहदृष्टि तुम्हारी नष्ट हो जावेगी। ऐसे ज्ञानवान् पुरुष संसार के किसी पदार्थ से उदेगवान् नहीं होते और किसी पदार्थ के अभाव हुए भातुर भी नहीं