पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०९

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उपशम प्रकरण।

होते। वे चिदाकाशरूप सबको सत्य और स्थितरूप देखते है, आकाश की नाई आत्मा को व्यापक देखते हैं और भाई, बान्धव भूतजात को अत्यन्त असत्यरूप देखते हैं। नाना प्रकार के अनेक जन्मों में भ्रम से अनेक बान्धव हो गये हैं-वास्तव में त्रिलोकी और बान्धवों में भी बान्धव वही है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे जीवन्मुक्लवणेनन्नामाष्टादशस्सर्गः॥ १८ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रसंग पर एक पुरातन इतिहास है। जो बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा है सो सुनो। इसी जम्बूदीप के किसी स्थान में महेन्द्र नाम एक पर्वत है वहाँ कल्पवृक्ष था और उसकी छाया के नीचे देवता और किन्नर आकर विश्राम करते थे। उस पर्वत के बड़े शिखर बहुत ऊँचे थे और ब्रह्मलोक पर्यन्त गये थे जिन पर देवता सामवेद की ध्वनि करते थे। किसी ओर जल से पूर्ण बड़े मेघ विचरते थे, कहीं पुष्प से पूर्ण लता थीं, कहीं जल के झरने बहते थे और कन्दरा के साथ उबलते मानों समुद्र के तरङ्ग उठते थे कहीं पक्षी शब्द करते थे, कहीं कन्दरा में सिंह गर्जते थे, कहीं कल्प और कदम्ब वृक्ष लगे थे, कहीं अप्सरागण विचरती थीं, कहीं गङ्गा का प्रवाह चला जाता था और किसी स्थान में महासुन्दर रमणीय रत्नमणि विराजते थे। वहाँ गङ्गा के तट पर एक उग्र तपस्वी स्त्रीसंयुक्त तप करता था और उसके महासुन्दर दो पुत्र थे। जब कुछ काल व्यतीत हुआ तो पुण्यक नामक पुत्र ज्ञानवान् हुआ पर पावन अर्धप्रबुद्ध और लोलुप अवस्था में रहा। जब कालचक्र के फिरते हुए कई वर्ष व्यतीत हुए तो उस दीर्घतपस्वी का शरीर जर्जरी-भूत हो गया और उसने शरीर की क्षणभंगुर अवस्था देखकर चित्त की वृत्ति देह से विरक्त अर्थात् विदेह होने की इच्छा की। निदान दीर्घतपा की पुर्यष्टका कलनारूप शरीर को त्यागती भई और जैसे सर्प कञ्चुली को त्याग दे तैसे ही पर्वत की कन्दरा में जो आश्रय था उसमें उसने शरीर को उतार दिया और कलना से रहित अचैत्य चिन्मात्र सत्ता स्वरूप में स्थित हुआ और राग द्वेष से रहित जो पद है उसमें प्राप्त हुआ। जैसे धूम्र आकाश में जा स्थित हो तैसे ही चिदाकाश में स्थित हुआ। तब मुनीश्वर की स्त्री ने भर्ता का शरीर प्राणों से रहित