पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१

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वैरागी प्रकरण।

से धूम निकलता है। वैसे ही शरीररूपी वृक्ष में से जरारूपी अग्नि लगकर तृष्णारूपी धुवाँ निकलता है। जैसे डिब्बे में बड़े रत्न रहते हैं वैसे ही जरारूपी डिब्बे में दुःखरूपी अनेक रत्न रहते हैं। जरारूपी वसन्त ऋतु है; उससे शरीररूपी वृक्ष दुःखरूपी रस से होता है। जैसे हाथी जंजीर से बँधा हुआ दीन हो जाता है वैसे ही जरारूपी जंजीर से बँधा पुरुष दीन हो जाता है। उसके सब अङ्ग शिथिल हो जाते हैं बल क्षीण हो जाता है, इन्द्रियाँ भी निर्बल हो जाती हैं और शरीरजर्जरी भाव को प्राप्त होता है, परन्तु तृष्णा नहीं घटती वह तो नित्य बढ़ती चली जाती है। जैसे रात्रि आती है तब सूर्यवंशी कमल सब मुंद जाते हैं और पिशाचिनी आ विचरने लगती है और प्रसन्न होती है वैसे ही जरारूपी रात्रि के प्राने से सब शक्तिरूप कमल मुंद जाते हैं तृष्णारूपी पिशाचिनी प्रसन्न होती है। हे मुनीश्वर! ् जैसे गङ्गातट के वृक्ष गङ्गाजल के वेग से जर्जरीभूत हो जाते हैं वैसे ही जो यह आयुरूपी प्रवाह चलता है उसके वेग से शरीर जर्जरीभूत हो जाता है जैसे मांस के टुकड़े को देख आकाश से उड़ती चील नीचे आकर ले जाती है वैसे ही जरावस्था में शरीररूपी मांस को काल ले जाता है हे मुनीश्वर! यह तो काल का आस बना हुआ है। जैसे वृक्ष को हाथी खा जाता है वैसे जरावाले शरीर को काल देख के खाता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे जरावस्थानिरूपणं
नाम सप्तदशस्सर्गः॥१७॥

श्रीरामजी बोले कि हे मुनीश्वर! संसाररूपी गढ़ा है उसमें अज्ञानी गिरा है, पर संसाररूपी गढ़ा तो अल्प है और अज्ञानी बड़ा हो गया है। संकल्प विकल्प की अधिकता से बढ़ा है। जो ज्ञानवान् पुरुष है वह संसार को मिथ्या जानता है और संसाररूपी जाल में नहीं फँसता और जो अज्ञानी पुरुष है वह संसार को सत्य जानकर उसकी आस्थारूपी जाल में फँसता और भोग की वाञ्छा करता है। वह ऐसा है जैसे दर्पण में प्रतिविम्ब देखकर बालक पकड़ने की इच्छा करता है वैसे ही अज्ञानी संसार को सत्य जानकर जगत् के पदार्थ की वाञ्छा करता