पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१०

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योगवाशिष्ठ।

देखा और जैसे दण्ड से कमल काटा हो तेसे ही चित्त बिना शरीर देखती भई। निदान चिरपर्यन्त योगकर्म कर उसने अपना शरीर प्राण और पवन को वश करके त्याग दिया और जैसे भँवरा कमलिनी को त्यागे तैसे ही शरीर त्यागकर भर्ता के पद को प्राप्त हुई। जैसे आकाश में चन्द्रमा अस्त होता है और उसकी प्रभा उसके पीछे अदृष्ट होती है तेसे ही दीर्घतपा कीनी दीर्घतपा के पीछे अदृष्ट हुई। जब दोनों विदेहमुक्त हुए तब पुण्यक जो बड़ा पुत्रथा उनके दैहिककर्म में समाधान होकर कर्म करने लगा, पर पावन माता पिता विना दुःख को प्राप्त होशोक करके उसका चित्त व्याकुल हो गया और वनकुओं में भ्रमने लगा। पुण्यक जो माता पिता की देहादिक क्रिया करता था जहाँ पावन शोक से विलाप करता था पाया और भाई को शोकसंयुक्त देखकर पुण्यक ने कहा, हे भाई! शोक क्यों करते हो जो वर्षाकाल के मेघवत् आँसुओं का प्रवाह चला जाता है? यह बुद्धिमान! तुम जिसका शोक करते हो? तुम्हारे पिता और माता तो आत्मपद को प्राप्त हुए हैं जो मोक्षपद है। वही सब जीवों का स्थान है और ज्ञानवानों का स्वरूप है। यद्यपि सबका अपना आप स्वरूप एक ही है तो भी ज्ञानवान को इस प्रकार भासता हे भोर भवानी को ऐसे नहीं भासता। वे तो ज्ञानवान थे और अपने स्वरूप में प्राप्त हुए हैं उनका शोक तुम किस निमित्त करते हो? यह क्या भावना तुमने की है? संसार में जो शोक मोक्षदायक है वह तु नहीं करता और जो शोक करने योग्य नहीं वह करता है। न वह तेरी माता थी, न वह तेरा पिता था और न तू उनका पुत्र है, कई तेरे माता पिता हो गये हैं और कई पुत्रहो गये हैं, असंख्य वार तू उनका पुत्रहुमा हे और असंख्य पुत्र उन्होंने उत्पन्न किये हैं और अनेक पुत्र, मित्र, बान्धवों के समूह तेरे जन्म जन्म के बीच गये हैं। जैसे ऋतु ऋतु में बड़े वृक्षों की शाखाओं में फल होते और नष्ट हो जाते हैं तैसे ही जन्म होते है, तू काहे को पिता माता के स्नेह में शोक करता है? जो तेरे सहस्रों माता पिता होकर बीत गये हैं उनका शोक काहे को नहीं करता जो तू इस जन्म के बान्धवों का शोक करता है तो उनका भी शोक कर?