पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६०७
उपशम प्रकरण।

अद्वैत ज्ञान हुआ है। हे भाई! त्रिरागदेश में मैं तोता हुआ, तड़ाग के तट पर हंस हुआ, पक्षियों में काक हुआ, बेल हुआ, बङ्गदेश में वृक्ष हुआ, इस वन पर्वत में बड़ा उष्ट्र होकर विचरा, पौंड्रदेश में राजा हुआ और सह्याचल पर्वत की कन्दरा में भेड़िया हुआ जहाँ तू मेरा बड़ा भाई था। फिर मैं दश वर्ष मृग होकर रहा, पाँच महीने तेरा भाई होकर मृग रहा सो तेरा बड़ा भ्राता हूँ। इस प्रकार ज्ञान से रहित वासना कर्म के अनुसार कितने जन्मों में हम भ्रमते फिरे हैं। मैंने तुझसे सब कहा है और सब मुझको स्मरण है। इस प्रकार जगत्जाल की स्थिति मैंने तुझसे कही है। तेरे और मेरे अनेक जन्म के माता, पिता, भाई और मित्र हुए हैं उनका शोक तू क्यों नहीं करता? यह संसार दुःख सुख रूप अप्रमाण भ्रमरूप है, इस कारण सबको त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ। यह सब प्रपश्च भ्रान्तिरूप है, इनकी वासना त्याग जब अहंकार वासना को त्याग करोगे तब उस पद को प्राप्त होगे जहाँ ज्ञानवान् प्राप्त होता है। इससे हे भाई! यह जो जीवभाव अर्थात् जन्म, मरण, ऊर्ध्व जीना और फिर गिरना व्यवहार है उसमें बुद्धिमान शोक- वान् नहीं होते, वे दुःख की निवृत्ति के अर्थ अपना स्वरूप स्मरण करते हैं जो भाव, अभाव और जरा मरण बिना नित्य शुद्ध परमानन्द हैं। तू उसको स्मरणकर, और मूढ़ मत हो, तुझको न सुख है, न दुःख है, न जन्म है, न मरण है, माता है, न पिता है, तू एक अद्वैत-रूप आत्मा है और किसी से सम्बन्ध नहीं रखता, क्योंकि कुछ भिन्न नहीं है, हे साधो! यह जो नाना प्रकार का विषय संयुक्त यन्त्र है इसको ज्ञानरूप नटुआ ग्रहण करता है और इष्ट अनिष्ट से बान्धाय- मान होता है। जो आत्मदर्शी पुरुष हैं उनको क्रिया स्पर्श नहीं करती, वे केवल सुखरूप हैं और जो अज्ञानी हैं वे देह इन्द्रियों के गुणों में तद्रूप हो जाते हैं और इष्ट अनिष्ट से सुखदुःख के भोक्ता होते हैं। जो ज्ञानवान् पुरुष हैं वे देखनेवाले साक्षीभूत होते हैं, करते हुए भी कर्त्तारूप हैं और इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति में राग द्वेष रहित हैं। जैसे दर्पण में प्रतिविम्ब आ पड़ता है परन्तु दर्पण भले बुरे रंग से रञ्जित नहीं