पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१७

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उपशम प्रकरण।

रूपी मेघ नष्ट हो गया है परन्तु आपके वचनरूपी अमृत को पान करता मैं तृप्त नहीं होता। जिस प्रकार बलि को विज्ञान बुद्धि भेद प्राप्त हुआ है बोध की वृद्धि के निमित्त वह मुझसे ज्यों का त्यों कहिये। नम्रभुत शिष्यप्रति कहते हुए बड़े खेद नहीं मानते। वशिष्ठजी बोले, हे राघव! बलि का जो उत्तम वृत्तान्त है वह मैं कहता हूँ सुनो, उससे निरन्तर बोध प्राप्त होगा। हे रामजी! इस जगत् के नीचे पाताल है। वह स्थान महाक्षीरसमुद्र की नाई सुन्दर उज्ज्वल है और वहाँ कहीं महासुन्दर नागकन्या विराजती हैं, कहीं विषधर सर्प, जिनके सहस्रशीश हैं विराजते हैं, कहीं दैत्यों के पुत्र रहते और कट कट शब्द करते हैं, कहीं सुन्दर सुख के स्थान हैं, कहीं जीवों के परंपरा समूह नरकों में जलते है और कहीं दुर्गन्ध के स्थान हैं। सात पाताल हैं उन सबमें जीव स्थित हैं कहीं रत्नों से खचित स्थान हैं, कहीं कपिलदेवजी, जिनके चरणकमलों पर देवता और दैत्य शीश धरते हैं, विराजते हैं और कहीं सुगन्धित बाग लगे हैं। ऐसी दो भुजाओं से पाली हुई पृथ्वी में दानवों में श्रेष्ठ विरोचन का पुत्र राजा बलि रहता था जिसने सर्व देवताओं और विद्याधरों और किन्नरों को लीला करके जीता था और त्रिलोकी अपने वश की थी। सब देवताओं का राजा इन्द्र उसके चरण सेवन की वाछा करता है, त्रिलोकी में जो जाति-जाति के रत्न हैं वे सब उसके विद्यमान रहते हैं और सब शरीरों की रक्षा करने और भावना के धर्मों के धरनेवाले विष्णुदेव द्वारपाल हैं। ऐरावत हाथी जिसके गण्ड-स्थल से मद झरता है उसकी वाणी सुन ऐसा भयवान् होता है जैसे मोर की वाणी सुनकर सर्प भगवान् होता है उसका ऐसा तेज था जैसे सप्तसमुद्रों का जल कुहीड़ शोष लेती है और जैसे प्रलयकाल के द्वादश सूर्यों से समुद्र सूखने लगता है। उसने ऐसे यज्ञ करे जिसके क्षीर घृत की आहुति का धुवाँ मेघ बादल होकर पर्वतों पर विराजा। जिसकी दृढ़ दृष्टि देखकर कुलाचल पर्वत भी नम्रभूत होता था। जैसे फूलों से पूर्णलता नमती है तैसे ही लीला करके उसने भुवनों को विस्तार सहित जीता और त्रिलोकी को जीतकर दशकोटि वर्ष पर्यन्त राजा बलि