पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१९

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उपशम प्रकरण।

हे तात! वह कौन पद है जिसके पाने से और कुछ पाना नहीं रहता और जिसके देखने से और कुछ देखना नहीं रहता? यद्यपि जगत् के अत्यन्त भोग पदार्थ हैं तो भी सुखदायक नहीं भासते हैं, क्योंकि क्षोभ करते हैं और उनसे योगीश्वरों के मन भी मोहित होकर गिर पड़ते हैं। हे तात! जो सुख सुन्दर विस्तीर्ण आनन्द है वह मुझसे कहिये। उसमें स्थित हुआ मैं सदा विश्राम पाऊँगा।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे विरोचनवर्णनन्नाम
द्वार्विशतितमस्सर्गः ॥ २२ ॥

विरोचन बोले, हे पुत्र! एक अति विस्तीर्ण विपुल देश है उसमें अनेक सहस्र त्रिलोकियाँ भासती हैं। वहाँ समुद्र, जल, धारा, पर्वत, वन, तीर्थ, नदियाँ, तालाब, पृथ्वी, आकाश, नन्दनवन, पवन, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्यलोक, देश, देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, कमलों की शोभा, काष्ठ, तृण, चर, अचर, दिशा, ऊर्ध्व, अधः, मध्य, प्रकाश, तम, अहं, विष्णु, इन्द्र, रुद्रादिक नहीं हैं, केवल एक ही है-जो महानता नाना प्रकार प्रकाश को धारनेवाला है, सबका कर्ता सर्वव्यापक है और सर्वरूप तूष्णींभाव से स्थित है। उसने सब मन्त्रियों सहित एक मन्त्री संकल्प किया। वह मन्त्री जो न बने उसको शीघ्र ही बना लेता है और जो बने उसको न बनाने को भी समर्थ है वह आपसे कुछ नहीं भोगता और सब जानने को समर्थ है केवल राजा के अर्थ वह सब कार्यों को करता है। यद्यपि वह आप यज्ञ है तो भी राजा के बल से तनुता से ज्ञाता और कार्य करता है। यह सब कार्यों को करता है और उसका राजा एकता में केवल अपने आप में स्थित है। बलि ने पूछा, हे प्रभो! आधिव्याधि दुःखों से रहित जो प्रकाशवान् है वह देश कौन है, उसकी प्राप्ति किस साधन से होती है और आगे किसने पाया है? ऐसा मन्त्री कौन है और वह महाबली राजा कौन है जो जगत जाल संयुक्त हमने भी नहीं जीता? हे देव! यह अपूर्व आख्यान तुमने कहा है जो आगे मैंने नहीं सुना था। मेरे हृदयाकाश में संशयरूपी बादल उदय हुआ है सो वचनरूपी पवन से निवृत्त करो। विरोचन बोले, हे पुत्र! उस देश का मन्त्री