पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
योगवाशिष्ठ।

है कि यह मुझे प्राप्त हो और यह न हो। यह सब सुख नाशात्मक है अभिपाय यह कि आते हैं और जाते हैं स्थिर नहीं रहते; इनको काल ग्रास करता है। जैसे पक्के अनार को चूहा खा जाता है वैसे ही सब पदार्थों को काल खाता है। हे मुनीश्वर! यह सब पदार्थ कालग्रसित है। जैसे नेवला सर्प को भक्षण कर जाता है वैसे ही बड़े बड़े बली सुमेरु ऐसे गम्भीर पुरुषों को काल ने ग्रसित किया है। जगवरूपी एक गूलर का फल है, उसमें मज्जा ब्रह्मादिक हैं और उसका वन ब्रह्मरूप है। उस ब्रह्मरूप वन में जितने वन हैं सो सब इसका आहार हैं। यह काल सबको भक्षण कर जाता है। हे मुनीश्वर! यह काल बड़ा बलिष्ठ है; जो कुछ देखने में आता है सो सब इसने पास कर लिया है। हमारे जो बड़े ब्रह्मादिक हैं उनका भी काल पास कर जाता है तो और का क्या कहना है जैसे सिंह मृग का पास कर लेता है। काल किसी से जाना नहीं जाता। क्षण, घरी, प्रहर, दिन, मास और वर्षादिक से जानिये सोई काल है और काल की मूर्ति प्रकट नहीं है। यह किसी को स्थिर नहीं होने देता। एक बेलि, काल ने असारी है उसकी त्वचा रात्रि है और फल दिन है और जीवरूपी भौरे उस पर आ बैठते हैं। हे मुनीश्वर! जगतरूपी गूलर का फल है उसमें जीवरूपी बहुत मच्छर रहत हैं। जैसे तोता अनार का भक्षण करता है वैसे ही काल उस फल का भक्षण करता है। जगवरूपी वृक्ष है; जीवरूपी उसके पत्र हैं और कालरूपी हस्ती उसका भक्षण कर जाता है। शुभ अशुभरूपी भैंसे को कालरूपी सिंह छेद छेद के खाता है। हे मुनीश्वर! यह काल महाकर है; किसी पर दया नहीं करता; सबको खा जाता है। जैसे मृग सब कमलों को खा जाता है उससे कोई नहीं बचता वैसे ही काल भी सबको खाता है परन्तु एक कमल बचा है उस कमल के शान्ति और मैत्री अंकुर हैं और चेतनामात्र प्रकाश है, इस कारण वह बचा है। कालरूपी मृग इस तक नहीं पहुंच सकता बल्कि इसमें प्राप्त हुआ काल भी लीन हो जाता है। जो कुछ प्रपञ्च हैं सो सब काल के मुख में हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, कुबेर आदि सब मूर्ति काल की धरी हुई हैं। यह उनको भी अन्तर्द्वान कर देता है। हे मुनी