पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२०

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योगवाशिष्ठ।

भगवान् और अनेक कल्प के देवता और असुरगणों से वश नहीं होता, सहस्रनेत्र जो इन्द्र है उसके वश भी नहीं होता, यम, कुबेर उसे वश कर नहीं सकते और देवता और असुरों से भी जीता नहीं जाता। मुसल, वज्र, चक्र, गदादिक खड्ग उस पर चलाये कुण्ठित हो जाते हैं-जैसे पाषाण पर चलाने से कमल कुण्ठित हो जाते हैं। वह मन्त्री अस्त्र और शस्त्र से वश नहीं होता और बड़े युद्धकर्मों से भी नहीं पाया जाता। देवता और दैत्य सबको उसने वश किया है, विष्णु पर्यन्त देवता और हिरण्यकशिपु आदिक असुर उसने डाल दिये हैं। जैसे प्रलयकाल का पवन सुमेरु के कल्पवृक्ष को गिरा देता है। प्रमाद से इस त्रिलोकी को वशकर चक्रवर्ती राजावत् वह स्थित है और सुर असुरों के समूह उससे भासते हैं। यद्यपि वह गुह्य और गुणहीन है तो भी दुर्मति, दुष्ट अहंकार और क्रोध उससे उदय होते हैं। देवता और दैत्य के समूह फिर फिर उपजाता है सो इसकी क्रीड़ा है। ऐसा मन्त्रों से संयुक्त मन्त्री है। हे पुत्र! जब उसके राजा को वश कीजिये तब उसके मन्त्री को वश करना सुगम होता है। राजा को वश किये बिना मन्त्री वश नहीं होता, कभी भीतर रहता है कभी बाहर जाता है। जिस काल में राजा की इच्छा होती है कि मन्त्री अपने को जीते तब यत्न बिना जीत लेता है। वह ऐसा बली मल्ल है जिससे तीनों जगत् उल्लास को प्राप्त हुए हैं। वह मन्त्री मानों सूर्य है जिसके उदय होने से त्रिलोकीरूपी कमलों की खानि विकाश को प्राप्त होती है और जिसके लय होने से जगत्रूपी कमल लय हो जाते हैं। हे पुत्र! यदि उसके जीतने की तुझको शक्ति है तब तो तू पराक्रमवान् है और यदि मोह से रहित एकत्रबुद्धि हो उनमें से एक को जीत सकेगा तब तू धैर्यवान् है और तेरी सुन्दर वृत्ति है क्योंकि उसके जीतने से जो नहीं जीता उस पर भी जीत पाता है और जो उसको नहीं जीता पर और और लोक सब जीते हैं तो भी जीते अजीत हो जावेंगे। इस कारण जो तू अनन्त सुख चाहता है तो जो नित्य अविनाशी है उसके जीतने के निमित्त यत्न से स्थित हो और बड़े कष्ट और चेष्टा करके भी उसको वश कर। देवता, दैत्य, यक्ष, मनुष्य