पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२२

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योगवाशिष्ठ।

भाव को प्राप्त होता है और जैसे धूम्र बादल को धरता है तैसे ही मन ने विश्वरूप धरा है। उस मन को जीतने से सब विश्व जीत पाता है। मन का जीतना कठिन परन्तु युक्ति से वश होता है। बलि ने पूछा हे भगवन्! उस मन के वश करने की युक्ति मुझसे कहिये। विरोचन बोले, हे पुत्र! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के रस की सर्वदा सब घोर से आस्था त्यागना अर्थात् नाशवन्त और भ्रमरूप जानना, यही मन के जीतने की परम युक्ति है। मनरूपी हाथी विषयरूपी मद से मस्त है वह इस युक्ति से शीघ्र ही दमन हो जाता है। यह युक्ति कठिन है वह अति दुःख से प्राप्त होती है परन्तु अभ्यास से सुलभ ही प्राप्त हो जाती है। ब्रह्म के अभ्यास किये से और विरक्तता से यह युक्ति सब ओर से प्रकट होती है-जैसे रसवान् पृथ्वी से लता उपजती है तैसे ही जो जो शठ जीव हैं वे इसकी वाञ्छा करते हैं परन्तु अभ्यास बिना उन्हें नहीं प्राप्त होती और अभ्यासवान को प्रकट होती है। इससे तुम भी अभ्यास सहित युक्ति का आश्रय करो। जब तक विषयों से विरक्रता नहीं उपजती तब तक संसाररूपी वन के दुःखों में भ्रमता है पर विषयों से विकत्ता अभ्यास बिना किसी को नहीं प्राप्त होती। जैसे अभ्यास बिना नहीं पहुँचता तैसे ही जब आत्मा ध्येय को पुरुष निरन्तर घरता है तब अभ्यासवान की वृत्ति विषयों में अप्रीत होती है। जैसे जल के अभ्यास से बेलि को सींचते हैं तब लता वृद्धि होती है, ऐसे ही पुरुषार्थ से सब कार्यों की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं होती। यह निश्चय किया है कि जो क्रिया आपही करिये उसका फल अवश्य प्राप्त होता है। वही पुरुषार्थ कहाता है। जो अवश्य होना है उसकी जो नीति है वह दूर नहीं होती उसे ही देवशब्द कहिये वा नीति कहिये पर अपने ही पुरुषार्थ का फल पाता है-जैसे मरुस्थल में भ्रम से जल भासता है और सम्यक्ज्ञान से भ्रम निवृत्त हो जाता है। इस दैव और नीति को अपने पुरुषार्थ से जीतो। जैसा पुरुषार्थ से संकल्प दृढ़ करता है तैसा ही भासता है। जैसे आकाश को नीलता ग्रहण करती है पर वह नीलता कुछ है नहीं, तैसे ही सुख दुःख देनेवाला और कोई नहीं, जैसा संकल्प करता