पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२३

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उपशम प्रकरण।

है तैसा ही हो भासता है और जैसी नीति होती है तैसा ही संकल्प करता है उसी नीति से मिलकर कदाचित् कर्म करता है तो उससे इस जगत्-कोश में जीव शरीर धारकर फिरता है-जैसे आकाश में पवन फिरता है पर वह कदाचित नीति सहित और कदाचित नीति से रहित फिरता है, तैसे ही दोनों सीढ़ियाँ मन में होती हैं। आकाशरूपी मन में नीति नीतिरूपी वायु फिरता है इस कारण, जब तक मन है तब तक नीति हैं और देव है। मन से रहित न नीति है, न दैव है, मन के अस्त हुए जो है वही रहता है, तैसे ही पुरुषार्थ करके जैसा सङ्कल्प इस लोक में दृढ़ होता है सो कदाचित् अन्यथा नहीं होता। हे पुत्र! अपने पुरुषार्थ बिना यहाँ कुछ सिद्ध नहीं होता, इससे परम पुरुषार्थ करके विषय से विरक्त हो। जब तक विरक्तता नहीं उपजती तब तक परम सुख के देनेवाली मोक्षपदवी और (संसारभय का नाशकर्त्ता) ज्ञान नहीं प्राप्त होता। जब तक विषयों में प्रीति है तब तक सांसारिक दशा डोलायमान करती है, दुःखदायक होती है और सर्प की नाई विष फैलाती है, अभ्यास किये बिना निवृत्त नहीं होती। फिर बलि ने पूछा कि हे सब असुरों के ईश्वर। चित्त में भोगों से विरक्तता कैसे स्थित होती है, जो जीवों को दीर्घ जीने का कारण है? विरोचन बोले, हे पुत्र! जैसे शरत्काल की महालता में फूल से फल परिपक्क होता है तैसे ही आत्मावलोकन करनेवाले पुरुष को भोगों में विरक्तता प्रकट होती है। आत्मा के देखने से विषयों की प्रीति निवृत्त हो जाती है और हृदय में शान्ति प्राप्त होती है। जैसे कमलों में शोभा होती है तैसे ही बीजलक्ष्मी स्थित होती है। इससे सूक्ष्मबुद्धि विचाखेत्ता जैसे आत्मदेव को देखकर विषयों की प्रीति त्यागते हैं ऐसे तुम भी त्यागो। प्रथम दिन के दो भाग देह के कार्य करो, एक भाग शास्त्रों का श्रवण विचार करो और एक भाग गुरु की सेवा करो। जब कुछ विचार संयुक्त मन हो तब दो भाग वैराग्य संयुक्त शास्त्रों को विचारो और दो भाग ध्यान और गुरु के पूजन में रहो। इस क्रम से जीव ज्ञानकथा के योग्य होता है और क्रम से निर्मल भाव को ग्रहण करता है तब शनैःशनैः उत्तम