पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६१८
योगवाशिष्ठ।

पद की भावना होती है। इस प्रकार शास्त्रों के अर्थ विचार में चित्तरूपी बालक को परचावो। जब परमात्मा में ज्ञान प्राप्त होता है तब कर्म फाँसी से छूट जाता है। जैसे चन्द्रमा के उदय हुए चन्द्रकान्तिमणि द्रवीभूत होता है तैसे ही वह शीतल हो विराजता है। बुद्धि के विचार से सर्वदा सम और आत्मदृष्टि देखनी और तृष्णा का बन्धन त्यागना यह परस्पर कारण है। परमात्मा के देखने से तृष्णा दूर हो जाती है और तृष्णा के त्याग से आत्मा का दर्शन होता है। जैसे नौका को केवट ले जाता है और नौका केवट को ले जाती है तैसे ही परमात्मा का दर्शन होता है और भोगों का त्याग होता है। परब्रह्म में जो अत्यन्त विश्रान्ति नित्य उदय होती है सो मोक्षरूप आनन्द उदय होता है उसका अभाव कदाचित् नहीं होता। जीवों को आनन्द आत्मविश्रान्ति के सिवा न तपों से प्राप्त होता है न दानों से प्राप्त होता है और न तीर्थों से प्राप्त होता है। जब आत्मस्वभाव का दर्शन होता है तब भोगों से विरक्तता उपजती हैं, पर आत्मस्वभाव का दर्शन अपने प्रयत्न बिना और किसी युक्ति से नहीं प्राप्त होता है। हे पुत्र! भोगों के त्याग करने और परमार्थ दर्शन के यत्न करने से ब्रह्मपद में विश्रान्त और परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होता है। ब्रह्मा से यदि काष्ठपर्यन्त को इस जगत् में ऐसा आनन्द कोई नहीं जैसा परमात्मा में स्थित हुए से है। इससे तुम पुरुष प्रयत्न का श्राश्रय करो और देव को दूर से त्यागो। इस मार्ग के रोकनेवाले भोग हैं, उनकी निन्दा बुद्धिमान करते हैं। जब भोगों की निन्दा दृढ़ होती है तब विचार उपजता है-जैसे वर्षाकाल गये से शरत्काल की सब दशा निर्मल हो जाती हैं तैसे ही भोगों की निन्दा से विचार और विचार से भोगों की निन्दा परस्पर होती हैं जैसे समुद्र की अग्नि से धूम्र उदय होता है मोर बादलरूप हो वर्षा कर फिर समुद्र को पूर्ण करता है और जैसे मित्र आप से परस्पर कार्य सिद्ध कर देते हैं। इससे प्रथम तो दैव का अनादर करो और पुरुष प्रयत्न करके दाँतों से दाँतों को पीसकर भोगों की प्रीति त्यागो और फिर पुरुषार्थ से प्रथम अविरोध उपजाओ और उसको भगवान् के अर्पण करो और भोगों से असंग होकर उनकी निन्दा करो तब विचार