पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२५

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उपशम प्रकरण।

उपजेगा। फिर शास्त्रज्ञान को संग्रह करो तब परमपद की प्राप्ति होगी। हे दैत्यराज! समय पाकर जब तू विषयों से विरक्त चित्त होगा तब विचार के वश से परमपद पावेगा। अपने आपमें जो पावनपद है उसमें तब भली प्रकार अत्यन्त विश्राम पावेगा। और फिर कल्पना दुःख में न गिरेगा। देशाचार के कर्म से अल्पधन उपजाना फिर उसे साधु के संग में लगाना। उनके संग में वैराग्य और विचार संयुक्त हुए तुझको आत्मलाभ होगा।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे वल्युपाख्याने चित्तचिकित्साप-
देशो नाम चतुर्विंशतितमस्सर्गः ॥ २४ ॥

बलि ने विचार किया कि इस प्रकार मुझसे पूर्व पिता ने कहा था। अब मैं स्मृति दृष्टि से प्रसन्न हुआ हूँ और भोगों से विरक्तता उपजी है कि इसलिये शान्त और सम, निर्मल, अमृतरूपी, शीतल सुख में स्थित होऊँ। धन एकत्र होता है और नाश हो जाता है फिर आशा उपजती है और फिर धन से पूर्ण होता है, फिर स्त्रियों की वाञ्छा उपजती है और फिर उन्हें अङ्गीकार करता है। अब मैं विभूति की स्थिति से खेदवान् हुआ हूँ। अहो, आश्चर्य है कि इस रमणीय पृथ्वी से अब मैं सम शीतलचित्त होता हूँ और दुःख सुख से रहित सर्व शान्ति को प्राप्त होता हूँ। जैसे चन्द्रमा के मण्डल में स्थित हुआ सम शीतल होता है तैसे भीतर से मैं हर्षवान् और शीतल होता हूँ। दुःखरूपी विभूति ऐश्वर्य से रहित हो अब मैं अक्षोभ हूँगा। यह सब मनरूपी बालक की दिन- दिन प्रति कला है। प्रथम मैं स्त्री से चिपटता था फिर मोह से मेरी प्रीति बढ़ गई थी, जो कुछ दृष्टि से देखने योग्य था वह मैंने देखा है, जो कुछ भोगने योग्य था वह चिरकालपर्यन्त अखण्ड भोगा है और सर्वभूतजातों को वश कर रहा हूँ पर उससे क्या शोभनीय हुआ। फिर फिर उनमें वही चेष्टा से और और देखे, इसमे चित्त अव पदार्थ को नहीं देखता फिर फिर जगत् के वही पदार्थ हैं। इससे अपनी बुद्धि से इनका निश्चय त्यागकर पूर्ण समुद्रवत् अपने आपसे आपमें स्वच्छ, स्वस्थ और स्थित हूँ। पाताल, पृथ्वी और स्वर्ग में, जो स्त्री और रत्न, पन्नगादिक सार हैं वे भी तुच्छ हैं, समय पाकर उन्हें काल ग्रस लेता