पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२८

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योगवाशिष्ठ।

इस जगत् में जगत्भाव आकाश में आकाशता, शरीर में लक्षण भी वेतन बिना न पाइयेगा, इन्द्रियाँ भी चेतन हैं, मन भी चेतन है, भीतर बाहर सब चेतन है और चिदात्मा ही अहं त्वं भावरूप होकर स्थित है। चेतन मैं हूँ, सब इन्द्रियों संयुक्त विषयों का स्पर्श मैं करता हूँ और कदाचित् कुछ नहीं किया। काष्ठ लोष्ठतुल्य शरीर से मेरा क्या है? मैं तो सम्पूर्ण जगत् में आत्मा चेतन हूँ और आकाश में भी एक मैं आत्मा हूँ। सूर्य और भूत, पिञ्जर, देवता, दैत्य और स्थावरजङ्गम सबका चेतन आत्मा एक अद्वैत चेतन है और द्वैतकलना नहीं। सब, यदि इस लोक में द्वैत का असम्भव है तो शत्रु कौन है और मित्र किसको कहिये? जिस शरीर का नाम बलि है उसका शिर काटा तो आत्मा का क्या काटा? सब लोगों में आत्मा पूर्ण है पर जब चित्त दुःख चेतता है तब दुखी होता है चेतने बिना दुःख नहीं पाता। इस कारण जो दुःख- दायक भाव-अभाव पदार्थ भासते हैं वे सर्व आत्मरूप हैं चेतन तत्व से भिन्न कुछ नहीं। सब ओर से आत्मा पूर्ण है, आत्मा से भिन्न जगत् का कुछ व्यवहार नहीं। न कोई दुःख है, न कोई रोग है, न मन हैं, न मन की वृत्ति है, एक शुद्ध चेतनमात्र आत्मतत्त्व है और विकल्प कलना कोई नहीं। सब ओर से चेतन स्वरूप, व्यापक, नित्य, आनन्द, अद्वैत सबसे प्रतीत और अंशाशाभाव से रहित चेतनसत्ता व्यापक है। चेतन आदिक नाम से भी मैं रहित हूँ वे चेतन आदिक नाम भी व्यवहार के निमित्त कल्पे हैं। चेतन जो आत्मा की स्फुरणशक्ति है वही विस्तार में जगतरूप होकर भासती है, द्रष्टा, दर्शन मुक्त केवल अद्वैत-रूप है और प्रकाश प्रकाशभाव से रहित निराभास द्रष्टा परमेश्वर रूप हूँ। न मैं कर्ता हूँ और न भोक्ता हूँ, मैं केवल द्रष्टा निरामयरूप कलना कलङ्क से रहित हूँ। इनसे परे हूँ और यह स्वरूप भी मैं हूँ। यह मेरे में आभासमात्र है और मैं उदित नित्य और आभास से भी रहित एक प्रकाशरूप हूँ। स्वरूप होने से मेरा चित्त दृश्य के राग से रहित मुक्तरूप है। प्रत्यक्ष चेतन जो मेरा स्वरूप है उसको नमस्कार है। चित्त दृश्य से रहित हूँ और युक्ति अयुक्ति सबका प्रकाशस्वरूप मैं हूँ, मुझको नम-