पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२९

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उपशम प्रकरण।

स्कार है। मैं चित्त से रहित चेतन हूँ, सब भोर से शान्तरूप हूँ, फुरने से रहित हूँ और आकाश की नाई अनन्त सूक्ष्म से सूक्ष्म, दुःख सुख से मुक्त और संवेदन से रहित असंवेदनरूप हूँ। मैं चैत्य से रहित चेतन हूँ। जगत् के भाव अभाव पदार्थ मुझको नहीं छेद सकते। अथवा यह जगत् के पदार्थ छेदते हैं वह भी मुझसे भिन्न नहीं, क्योंकि छेद मैं हूँ और छेदनेवाला मैं हूँ। स्वभाव भूत वस्तु से वस्तु ग्रहण होती है अथवा नहीं होती तो भी किससे किसका नाश हो, मैं सर्वदा, सर्व प्रकार, सर्व शक्तिरूप हूँ, संकल्प विकल्प से अब क्या है। मैं एक ही चेतन अजड़रूप होकर प्रकाशता हूँ जो कुछ जगत्जाल है वह सब मैं ही हूँ मुझसे भित्र कुछ नहीं। इतना कह वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार तत्त्व के वेत्ता राजा बलि ने विचारा तब ओंकार की अर्धमात्रा तुरीयापद की भावना से ध्यान में स्थित हुआ और उसके संकल्प भली प्रकार शांत हो गये। वह सब कलना और चित्त चैत्य निःसङ्ग होकर स्थित हुआ और ध्याता जो है अहंकार, ध्यान जो है मन की वृत्ति और ध्येय जिसको ध्याता था तीनों से रहित हुआ और मन से सब वासनाएँ नष्ट हो गई। जैसे वायु से रहित अचलरूप दीपक प्रकाशता है तैसे ही बलि शान्तरूप पद को प्राप्त हुआ और रत्नों के झरोखे में बैठे दीर्घ काल बीत गया। जैसे स्तम्भ में पुतली हों तैसे ही सर्व एषणा से रहित वह समाधि में स्थित रहा और सब क्षोभ, दुःख, विघ्न से रहित निर्मल चिच शरत्काल के प्राकाशवत् हो रहा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे बलिविश्रान्तिवर्णन-
न्नाम सप्तर्विशस्सर्गः ॥ २७ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार दैत्यराज बहुत काल पर्यन्त समाधि में बैठा रहा तब बान्धव, मित्र, टहलुये, मन्त्री रत्नों के झरोखे में देखने चले कि राजा को क्या हुआ। ऐसा विचारकर उन्होंने किवाड़ों को खोला और ऊपर चढ़े। यक्ष, विद्याधर और नाग एक ओर खड़े रहे और रम्भा और तिलोत्तमादिक अप्सरागण हाथों में चमर ले खड़ी हुई और नदियाँ, समुद्र, पर्वत आदिक मूर्ति धारकर और रत्न