पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३

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वैराग्य प्रकरण।

श्वर! उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय सब काल से होते हैं। अनेक बेरे इसने महाकल्प का भी ग्रास किया है और अनेक बेर करेगा। काल को भोजन करने से तृप्ति कदाचित् नहीं होती और कदाचित् होनेवाली भी नहीं। जैसे अग्नि घृत की आहुति से तृप्त नहीं होता। वैसे ही जगत् भोर सब ब्रह्मांड का भोजन करके भी काल तृप्त नहीं होता। इसका ऐसा स्वभाव है कि इन्द्र को दरिद्री कर देता है और दरिद्री को इन्द्र कर देता है, सुमेरु को राई बनाता है और राई को सुमेरु करता है। सबसे बड़े ऐश्वर्यवान् को नीच कर डालता है और सबसे नीच को ऊँच कर डालता है। बूँद को समुद्र कर डालता है और समुद्र को बूँद करता है। ऐसी शक्ति काल में है। यह जीवरूपी मच्छरों को शुभाशुभ कर्मरूपी छुरे से छेदता रहता है। कालरूप का चक्र जीवरूपी हँडिया की शुभअशुभ कर्मरूपी रस्सी से बाँधकर फिराता है और जीवरूपी वृक्ष को रात्रि और दिनरूपी कुल्हाड़े से छेदता है। हे मुनीश्वर! जितना कुछ जगत् विलास भासता है काल सबको ग्रास कर लेगा। जीवरूपी रत्न का काल डब्बा है सो सबको अपने उदर में डालता जाता है। काल यो खेल करता है कि चन्द्र सूर्यरूपी गेंद को कभी ऊर्ध्व को उछालता है और कभी नीचे डालता है। जो महापुरूष है वह उत्पत्ति और प्रलय के पदार्थों में से किसी के साथ स्नेह नहीं करता और उसका काल भी नाश नहीं कर सकता! जैसे मुण्ड की माला महादेवजी गले में धारे हैं वैसे ही यह भी जीवों की माला गले में डालता है। हे मुनीश्वर! जो बड़े बलिष्ठ हैं उनको भी काल ग्रहण कर लेता है। जैसे समुद्र बड़ा है उसको बड़वानल पान कर लेता है और जैसे पवन भोजपत्र को उड़ाता है वैसे ही काल का भी बल है, किसी की सामर्थ्य नहीं जो इसके आगे स्थित रहे। हे मुनीश्वर! शान्तिगुण प्रधान देवता; रजोगुण प्रधान बड़े राजा और तमोगुण प्रधान दैत्य और राक्षस हैं उनमें किसी को सामर्थ्य नहीं जो इसके आगे स्थिर रहे। जैसे तौली में अन्न और जल भरके अग्नि पर चढ़ा देने से अन्न उछलता है और वह अन्न के दाने करछी से कभी ऊपर और कभी नीचे फिर जाते हैं वैसे ही जीवरूपी अन्न के दाने जगत् रूपी तौली में