पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३०

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योगवाशिष्ठ।

आदिक भेंट लेकर सब प्रणाम के निमित्त खड़े हुए और त्रिलोकी के उदरवर्ती जो कुछ थे वे सब आये, पर राजा बलि ध्यान में ऐसा स्थित था मानो चित्र की मूर्ति लिखी है और पर्वतवत् स्थित है। उसको देखकर सब दैत्यों ने प्रणाम किया, कोई उसे देखकर शोकवान् हुए। कोई आश्चर्यवान्, कोई आनन्दवान् हुए और कोई भय को प्राप्त हुए तब मन्त्री विचारने लगे कि राजा की क्या दशा हुई। इसलिए उसने शुक्रजी का ध्यान किया और भार्गवमुनि झरोखे में आये। उनको देख- कर दैत्यगणों ने पूजन किया और बड़े सिंहासन पर गुरु को बैठाया। बलि को ध्यान स्थित देखकर शुक्रजी अति प्रसन्न हुए कि जो पद मैंने उपदेश किया था, उसमें इसने विश्राम पाया है इसका भ्रम अब नष्ट हुआ है और क्षीरसमुद्रवत् प्रकाश है। ऐसे देखकर शुक्रजी ने कहा बड़ा आश्चर्य है कि दैत्यराज ने विचार करके निर्मल आत्मप्रकाश पाया है। अब भगवान् सिद्ध हुआ है और अपने स्वरूप में जो सब दुःखों से रहित पद है उसमें यह स्थित हुआ है और चिन्ताभ्रम इसका क्षीण हुआ है। अब इसको मत जगाओ। यह आत्मज्ञान को प्राप्त हुआ है और यत्न और क्लेश इसका दूर हो गया है जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है। अब मैं इसको नहीं जगाता यह आपही दिव्य वर्षों में जागेगा, क्योंकि आरब्ध अंकुर इसके रहता है और उठकर अपना राजकार्य करेगा। अब तुम इसको मत जगाओ, अपने राजकार्य में जा लगो। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार शुक्रजी ने कहा तब सब सुनकर सूखे वृक्ष की मञ्जरी ऐसे हो गये और शुक्रजी अन्तर्धान हो गये। दैत्य भी अपने राजा विरोचन की सभा में जाकर अपने अपने व्यवहार में लगे और खेचर, भूचर और पातालवासी अपने अपने स्थान में गये और देवता, दिशा, पर्वत, समुद्र नाग, किन्नर गन्धर्व सब अपने अपने व्यवहार में जा लगे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे बलिविज्ञान प्राप्ति-
र्नामाष्टार्विशतितमस्सर्गः ॥ २८ ॥