पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२६
योगवाशिष्ठ।

कार्य विभूति से कुछ सिद्ध होना है। इससे राजकार्य से मेरा कुछ प्रयोजन नहीं, मैं आकाशवत् ही रहता हूँ। मैं न कुछ इच्छा करूँगा न राज्य करूँगा तो भी मेरा सिद्ध नहीं होता इससे जो कुछ प्रकृत आचार है उसी को मैं करूँ। बन्धन का कारण अज्ञान है सो तो नष्ट हुआ है अब कोई क्रिया मुझको बन्धनरूप नहीं। हे रामजी! इसी प्रकार निर्णय करके बलि ने दैत्यों की ओर देखा तब देवता और दैत्यों ने शीश से प्रणाम किया और राजा ने दृष्टि करके उनकी प्रणाम वन्दना अङ्गीकार की। तब राजा बलि ने ध्येयवासना को मन से त्याग किया और राज्य के कार्य करने लगा। ब्राह्मण, देवता और गुरु का पूर्ववत् पूजन किया, जो कोई अर्थी और मित्र, बान्धव, टहलुये थे उनका अर्थ पूर्ण किया, स्त्रियों को नाना प्रकार के वस्त्र आभूषण दिये और जो दण्ड देने योग्य थे उनको दण्ड दिया। फिर उसने यज्ञ का आरम्भ करके सुरगणों का पूजन किया और शुक्रजी से आदि ले मुख्य-मुख्य देवता यज्ञ कराने के निमित्त बैठे। फिर विष्णु भगवान् ने इन्द्र के अर्थ सिद्ध करने के निमित्त छल करके बलिराज को वञ्चित कर लिया और बाँधकर पाताल में स्थित किया। वह आगे इन्द्र होगा अब जीवन्मुक्त, स्वस्थवपु, सदा ध्यानस्थित और ऐषणा से रहित पुरुष पाताल में है। हे रामजी! जीवन्मुक्त पुरुष राजा बलि सम्पदा और आपदा में समचित्त विवरता है, वह सम्पदा में हर्ष नहीं करता और आपदा में शोक नहीं करता। अनेक जीवों का उपजना और लय होना बलि ने देखा है, दश करोड़ वर्ष पर्यन्त तीनों लोकों का कार्य किया और बड़े विषयभोग भोगे हैं। अन्त में भोगों को विरस जानकर उसका मन विरस हुआ, विचार करने से तृष्णा नष्ट हो गई और मन उपशम हुआ। हेयोपादेय की नाना प्रकार चेष्टा बलि ने देखीं पर पदार्थों के भाव अभाव में मन शान्ति को ही प्राप्त हुआ। अब भोगों की अभिलाषा त्याग आत्मारामी हो नित्य स्वरूप में स्थित पाताल में विराजता है। हे रामजी! इस बलि को फिर इस जगत् का इन्द्र होना और सम्पूर्ण जगत् का कार्य करना है वह अनेक वर्ष आज्ञा चलावेगा परन्तु इन्द्रपद को पाकर भी तुष्टवान न होगा और अपने