पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३५

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उपशम प्रकरण।

से देवताओं को दैत्य दुःख देने लगे तब सब देवता मिलकर विष्णु की शरण गये और विनती की कि यह हिरण्यकशिपु महादुष्ट है इसका नाश करो और हमारी रक्षा करो। बारम्बार दुखावने से महापुरुष भी क्रोधवान् हो जाते हैं। हे रामजी! जब इस प्रकार देवताओं ने प्रार्थना की तब विष्णुदेव ने कहा अब तुम जाओ मैं इसके पुत्र के हेतु से मारूँगा। ऐसे कहकर विष्णु भगवान् अन्तर्धान हो गये और हिरण्यकशिपु अपने ऐश्वर्य की शिक्षा प्रह्लाद को देने लगा परन्तु वह ग्रहण न करे और बहुत प्रकार ताड़ना भी दे तो भी उसकी शिक्षा को प्रह्लाद अङ्गीकार न करे। वह ईश्वर विष्णुजी की आराधना में रहता था इस कारण ताड़ना का दुःख प्रह्लाद को कुछ न हो। तब दैत्य अपने हाथ में खड्ग लेकर कहने लगा कि हे दुष्ट! तेरा ईश्वर कहाँ है, जिसका तू आराधन करता है। मेरे सिवा ईश्वर और कौन है? प्रह्लाद ने कहा मेरा ईश्वर सर्वव्यापक है। तब हिरण्यकशिपु ने कहा इस खम्भे में कहाँ है? जो है तो दिखा दे और यदि न दिखावेगा तो तुझको मारूँगा। तब सर्वव्यापक विष्णु खम्भे से भासने लगे और बड़े शब्द होने लगे। फिर उस खम्भे को फोड़कर बड़ी भुजा और तीक्ष्ण नखों से संयुक्त महाभयानक-रूप से विष्णु भगवान् ने नरसिंहरूप प्रकट करके हिरण्यकशिपु को नखों से विदारण किया और ऐसा कोपवान् रूप धरा जिससे दैत्यों के स्थान जलने लगे और दृष्टि से मान पर्वत चूर्ण होते थे। दैत्यों के कई समूह मारे गये, कई भागे और बहुत से दिशाविदिशा को दौड़ गये-जैसे वायु के मारे मच्छर उड़ जाते हैं और कुछ पाताल छिद्र में नाश हो गये। निदान प्रलयकालवत् स्थान शून्य हो गये मानों अकाल प्रलय आया है और दैत्यों को नाश करके फिर विष्णुदेव अन्तर्धान हो गये। कुछ दैत्य बान्धव और टहलुये जो रहे थे वे प्रह्लाद के निकट मुख कुम्हिलाये हुए आये-जैसे जल से रहित कमल होता है और भाई, बान्धव मिलकर प्रह्लाद को समझाने लगे। प्रह्लाद ने सबसे मिलकर पिता का सोच किया और फिर उठकर सब कर्म किये। निदान संशयसंयुक्त सब दैत्य बैठे और विचार करके शोकवान् हुए और सब सुखकर चित्र की