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योगवाशि

पड़े हुऐ रागदेषरूपी अग्नि पर चढ़े हैं और कर्मरूपी करछी से कभी ऊपर जाते हैं और कभी नीचे पाते हैं। हे मुनीश्वर! यह काल किसी को स्थिर नहीं होने देता यह महा कठोर है, दया किसी पर नहीं करता। इसका भय मुझको रहता है इससे वही उपाय मुझसे कहिये जिससे मैं काल से निर्भय हो जाऊँ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैगग्यप्रकरणे कालनिरूपणनामाष्टादशस्सर्गः॥१८॥

श्रीरामजी बोले कि हे मुनीश्वर! यह काल बड़ा बलिष्ठ है। जैसे राजा के पुत्र शिकार खेलने जाते हैं तो वन में बड़े बड़े पशु-पक्षी उनसे दुःख पाते हैं वैसे ही यह संसाररूपी वन है उसमें प्राणिमात्र पशु-पक्षी हैं। जब कालरूपी राजपुत्र उसमें शिकार खेलने आता है तब सब जीव भय पाते हैं और जर्जरीभूत होते हैं और वह उनको मारता है। हे मुनीश्वर! यह काल महाभैरव है सबका ग्रास कर लेता है प्रलय में सबका प्रलय कर डालता है और इसकी जो चण्डिका शक्ति है उसका बड़ा उदर है। वह कालिका सबका ग्रास करके पीछे नृत्य करती है। जैसे वन के मृग को सिंह और सिंहनी भोजन करके नृत्य करते हैं वैसे ही जगतरूपी वन में जीवरूपी मृग को भोजन करके काल और कालिका नृत्य करते हैं। फिर इन्हीं से जगत् का प्रादुर्भाव होता है। नाना प्रकार के पदार्थों को रचते हैं और पृथ्वी, बगीचे, बावली आदि सब पदार्थ इन्हीं से उत्पन्न होते हैं। जीवों की उत्पत्ति भी इनमें होती है और एक समय में उनका नाश भी कर देती है। सुन्दर समुद्र रचके फिर उनमें अग्नि लगा देती है और सुन्दर कमल को बनाके फिर उसके ऊपर बरफ की वर्षा करती है। जहाँ बड़े बड़े स्थान बसते हैं उनको उजाड़ डालती है और फिर उजाड़ में वस्ती करती है और नाश भी करती है, किसी को स्थिर नहीं रहने देती। जैसे बाग में बानर आकर वृक्ष को ठहरने नहीं देता वैसे ही कालरूपी वानर किसी पदार्थ को स्थिर रहने नहीं देता। हे मुनीश्वर! इस प्रकार से सब पदार्थ काल से जर्जरीभूत होते हैं। उनका आश्रय में किस रीति से करूँ? मुझको तो यह सब नाशरूप भासते हैं, इससे अब मुझको किसी जगत् के पदार्थ की इच्छा नहीं।

इति श्रीयो॰ वै॰ कालविलासवर्णनन्नामैकोनविंशतितमस्सर्गः॥१९॥