पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४०

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योगवाशिष्ठ।

ले चार प्रकार के भोजन कराये। फिर अपना आप विष्णु को अर्पण किया और परम भक्ति को प्राप्त हुआ। जिस प्रकार मन से पूजन किया उसी प्रकार अन्तःपुर में विष्णु की मूर्ति देखकर पूजा। इसी प्रकार दिन प्रति दिन विष्णु का पूजन किया और जिस प्रकार प्रह्लाद मन की चिन्तन से पूजा करे उसी प्रकार और दैत्य भी मानसी पूजा करें। उनको प्रह्लाद ने सिखाया और उस पुर में सब दैत्य कल्याण मूर्ति विष्णुभक्त हो गये। जैसा राजा होता है तैसी ही उसकी प्रजा होती है। इसमें कुछ आश्चर्य नहीं। यह वार्ता देवलोक में प्रकट हुई कि दैत्यों ने विष्णु का द्वेष त्याग किया है और भक्त हुए हैं तब देवता आश्चर्य को प्राप्त हुए और इन्द्रादिक अमरगण विचारने लगे कि यह क्या हुआ जो दैत्यों ने विष्णु की भक्ति ग्रहण की और उनको यह प्राप्त कैसे हुई। ऐसे आश्चर्यवान् होकर क्षीरसमुद्र में दैत्यों की वार्ता करने के निमित्त वे विष्णु के निकट गये और कहा, हे भगवन्! यह आपने क्या माया फैलाई कि जो दैत्य सर्वदा विरोध करते थे वे अब तुम्हारे साथ तन्मयरूप हो रहे हैं, कहाँ वह दुर्वृत्ति पर्वत को चूर्ण करनेवाले दैत्य और कहाँ तुम्हारी भक्ति, जो अनेक जन्मों से भी दुर्लभ है। हे जनार्दन! तुम्हारी भक्ति कहाँ और उनकी वृत्ति कहाँ। यह तो अपूर्व वार्त्ता हुई है। जैसे समय बिना पुष्पों की माला नहीं शोभती तैसे ही पात्र बिना तुम्हारी भक्ति नहीं शोभती और यह हमको सुखदायक नहीं भासता। जैसा जैसा कोई होता है तैसे ही तैसे स्थान में शोभता है। जैसे काँच में महामणि नहीं शोभती तैसे ही दैत्यों में तुम्हारी भक्ति नहीं शोभती। जैसा गुण किसी में होता है तैसी ही पंक्ति में वह शोभता है और में स्थित हुआ नहीं शोभता है। जो सुदेश नहीं होता तो दुःखदायक होता है। जैसे अङ्गों में वज्र दुःखदायक होता है। जैसा गुणवान् हो तैसा पदार्थ जब प्राप्त होता है तो वह शोभा पाता है विपर्यय हो तब शोभा नहीं पाता। जैसे कमलिनी जल में शोभती है, मरुस्थल में नहीं शोभती तैसे ही कहाँ वह अधर्म नीचजन भयानक कर्म करनेवाले और कहाँ तुम्हारी आश्चर्य भक्ति। जैसे कमलिनी पृथ्वी पर नहीं शोभती तैसे ही तुम्हारी भक्ति देत्यों में नहीं