पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४१

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उपशम प्रकरण।

शोभती और तैसे ही भक्ति हमको उनमें सुखदायक नहीं भासती।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशम प्रकरणे प्रह्लादोपाख्याने विविध-
व्यतिरेको नाम द्वात्रिंशत्तमस्सर्गः ॥ ३२ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार बड़े शब्द से देवता कहने लगे तब माधव आकर बोले, हे देवगण! तुम शोक मत करो। प्रह्लाद मेरा भक्त है, इसका यह अन्त का जन्म है, और अब मोक्ष को प्राप्त होकर फिर जन्म न पावेगा। हे देवगण! गुणवान् के गुणों को त्यागकर द्वेष ग्रहण करना अनर्थरूप होता है और जो प्रथम गुणों से रहित निर्गुण हो और उनको त्यागकर गुण ग्रहण करे और शास्त्र मार्ग में विचरे तो यह सुखदायक होता है। प्रह्लाद की विचित्र चेष्टा तुमको सुखदायक होगी। अब तुम अपने स्थानों में जाओ, प्रह्लाद मेरा भक्त है। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार कहकर भगवान् क्षीरसमुद्र में अन्तर्धान हो गये देवता नमस्कार करके अपने-अपने स्थानों में गये और प्रह्लाद से द्वेष भावना त्याग की। प्रह्लाद दिन प्रति दिन अपने घरमें जनार्दन की मनसा वाचा और कर्मणा से भक्ति करने लगा और समय पाकर दैत्यों में बड़ी भक्ति हो गई। तब उन्हें परम विवेक प्राप्त हुआ और विषय भोग से वैराग्यवान् हुए। वे विषयों से प्रीति न करें, सुन्दर स्त्रियों से न रमें, दृश्य में उनकी प्रीति न उपजे और यह भोग जो रोगरूप है उनमें उनका चित्त विश्राम न पावे और राग भी न करें परन्तु मुक्तकर्त्ता जो आत्मबोध है सो उन्हें प्राप्त न हुआ वे मुक्तफल के निकट आ स्थित हुए और भोगों की अभिलाषा त्यागकर निर्मल हो गये पर परम समाधि को न प्राप्त हुए चित्त अवस्था में डोलायमान हो रहे। तब श्याममूर्ति विष्णुदेव प्रह्लाद की वृत्ति विचारकर पाताल में उसके गृह पूजा के स्थान में महाप्रकाश सुन्दररूप से प्रकटे और उनको देखकर प्रह्लाद ने विशेष पूजा की और प्रेम से गद्गद हो कहा, हे ईश्वर! त्रिलोकी में सुन्दरमूर्ति, सबके धारनेवाले, सब कलङ्कों के हरनेवाले, प्रकाशस्वरूप, अशरणों के शरण, अजन्म और अच्युत! मैं तुम्हारी शरण हूँ। हे नीलोत्पल और कमलों के पर्वत, श्यामरूप, अनेक चरित्रों को धरनेवाले! मैं तुम्हारी शरण हूँ। हे निर्मलरूप केलेवत्