पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४२

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योगवाशिष्ठ।

कोमल अङ्ग और श्वेत कमल की नाई श्वेत शंख हाथ में धारण किये! तुम्हारे नाभिकमल में भँवरेरूप ब्रह्मा स्थित हो वेद का उच्चाररूपी ओ३म् शब्द करते हैं और हृदयकमल में बिराजनेवाले जल के ईश्वररूप! मैं तुम्हारी शरण हूँ। जिसके श्वेतनख तारागणवत् प्रकाशरूप, हँसता मुख चन्द्रमा के मण्डलवत्, हृदयमणि सबका प्रकाशक और शरत्काल के आकाशवत् निर्मल विस्तृतरूप! मैं तेरी शरण हूँ। हे त्रिभुवनरूपी कमलिनियों के प्रकाशनेवाले चन्द्रमा! मोहरूपी अन्धकार के नाशकर्त्ता, सूर्य! अजड़, चिदात्मा, सम्पूर्ण जगत् के कष्ट हरनेवाले! मैं तुम्हारी शरण हूँ। हे नूतनविकसितरूप कमलपुष्पों से भूषित अङ्ग और स्वर्णवत् पीताम्बरधारी महासुन्दरस्वरूप! मैं तेरी शरण हूँ। हे ईश्वर! लीला करके सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और नाश करनेवाले और परमशक्ति शङ्कवत् दृढ़ देह! मैं तेरी शरण हूँ। हे दामिनीवत् प्रकाशरूप, सबको संहारकर जल में बालकरूप घर वट के नीचे शयन करनेवाले! मैं तेरी शरण हूँ। हे देवतारूप कमलों के प्रकाश करने वाले सूर्यमण्डल, दैत्य पुत्ररूपी कमलिनियों के तुषाररूपी बरफ को जलानेवाले और हृदयरूपी कमलों के आश्रयभूत! मैं तेरी शरण हूँ। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जब अनेक गुणों से आठ श्लोक प्रह्लाद ने कहे तब विष्णुजी ने प्रह्लाद से कहा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशम प्रकरणे प्रह्लादाष्टकानन्तरनारायणागमन-
न्नाम त्रयस्त्रिंशतितमस्सर्गः ॥ ३३ ॥

श्रीभगवानजी बोले, हे गुणनिधि, दैत्यकुल के शिरोमणि! जो तुमको वाञ्छित फल है सो माँगों और जन्मदुःख के शान्ति निमित्त वर माँगो। प्रह्लाद बोले, हे सर्व संकल्प के फलदायक और सर्वलोकों में व्यापकरूप। जो वस्तु दुर्लभतर है वह शीघ्र ही मुझसे कहिये और दीजिये। श्रीभगवानजी बोले, हे पुत्र! सब भ्रम के नाश करनेवाले और परम फलरूप ब्रह्म से विश्रान्ति होती है और वह जिस आत्मविवेक की समता से प्राप्त होती है। वही आत्मविवेक तुझको होगा। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार दैत्येन्द्र से कहकर विष्णु अन्तर्धान हो गये। फिर प्रह्लाद ने पुष्पाञ्जली दी और पूजा करके श्रेष्ठ आसन बिछा उस पर आप पद्मासन धरके बैठा और