पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४३

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उपशम प्रकरण।

विधिसंयुक्त उत्तम शास्त्रों का पाठ करने लगा। जब पाठ करके निश्चिन्त हुआ तब विचारने लगा कि विष्णु ने मुझसे क्या कहा था, उन्होंने कहा था कि तुझको विवेक होगा। इसलिए संसारसमुद्र तरने के निमित्त शीघ्र ही विचार करूँ। इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ जो बोलता हूँ, देह और यह जगत् तो मैं नहीं, यह तो असत्य उपजा है और जड़रूप पवन से स्फुरणरूप होता है सो मैं कैसे होऊँ? यह देह भी मैं नहीं क्योंकि यह तो क्षण-क्षण में काल से लीन होता है और जड़रूप है। श्रवणरूपी जड़ भी मैं नहीं, क्योंकि जो शब्द सुनते हैं वह शून्य से उपजा है। त्वचा इन्द्रिय भी मैं नहीं इसका क्षण-क्षण विनाश स्वभाव है। प्राप्त हुआ अथवा न हुआ, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इन्द्रियाँ आप जड़ हैं पर इनके जाननेवाला चैतन्यतत्व है और चैतन्य के प्रमाद से ये विषय उपलब्ध होते हैं। इससे न मैं त्वचा इन्द्रिय हूँ, और न स्पर्श विषय हूँ, यह जड़ात्मक है यह जो चञ्चलरूपी तुच्छ जिह्वा इन्द्रिय है और जिसके अग्र में अल्प जल अणु स्थित है वही रस ग्रहण करता है, वह रस भी आत्मसत्ता करके लब्धरूप होता है आप जड़ है, इससे यह जड़रूप जिह्वा और रस मैं नहीं ये जो विनाशरूप नेत्र दृश्य के दर्शन में लीन हैं सो मैं नहीं और न मैं इनका विषयरूप हूँ, ये जड़ हैं। यह जो नासिका पृथ्वी का अंश है सो केवल आत्मा के आधार है यह आप जड़ है पर इसका जाननेवाला चैतन्य है, सो न मैं नासिका हूँ, न गन्ध हूँ, मैं अहं मम से और मन के मनन से रहित शान्तरूप हूँ और ये पञ्च इन्द्रियाँ मेरे में नहीं मैं शुद्ध चैतन्यरूप कलना कलंक से और चित्त से रहित चिन्मात्र और सबका प्रकाशक सबके भीतर बाहर व्यापक और निःसंकल्प निर्मल शान्तरूप हूँ। आश्चर्य है अब मुझको अपना स्वरूप स्मरण आता है। प्रकाशरूप चैतन्य अनुभव अद्वैत मेरे अनुभव से स्थित है। सूर्य घट, पटादिक सब पदार्थ मैं प्रकाशता हूँ। जैसे दीपक से उत्तम तेज भासे तैसे ही चैतन्य अनुभव से इन्द्रियों की वृति स्फुरणरूप होती है। जैसे तेज से चिनगारे स्फुरणरूप होते हैं तैसे ही सर्व अनुभव सत्ता से मन का मननरूप शक्ति फुरती है। जैसे सूर्य के तेज से मरुस्थल में मृगतृष्णा की नदी फुरती है तैसे ही अनुभव सत्ता