पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४४

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योगवाशिष्ठ।

से पदार्थ भासते हैं जैसे दीपक में शुक्लादि रड़्ग भासते हैं तैसे ही इन पदार्थों में अहं आदिक पदार्थ भासते हैं वह जात्रवत् सब पदार्थों का प्रकाशक है, सबको अनुभव से भासता है और सबके भीतर आत्मभाव से स्थित है। जैसे बीज में अंकुर स्थित होता है तैसे ही चैतन्यरूप दीपक के प्रकाश से विकल्परूपी पदार्थों की शक्ति भासता है। उष्णरूपी सूर्य, शीतलरूपी चन्द्रमा, घनरूपी पर्वत, द्रवतारूपी जल है और इसी प्रकार अनुभवसत्ता से सकल पदार्थ प्रकट होते हैं जैसे सूर्य के प्रकाश से घटपटादिक होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र ये सबके कारणरूप जगत् में स्थित हैं और इसका कारण अनुभव तत्त्व आदि अन्त से रहित और सब कारणों का कारण है। जैसे बरफ से शीतलता उपजती है तैसे ही अनुभव से जगत् उदय होता है। चित्त, चैत्य, दृश्य, दर्शन कलना से रहित प्रकाशरूप सत्ता मेरा आत्मा मुझको नमस्कार है। इसी से सर्वभूत उत्पन्न और स्थित होकर फिर लय होते हैं सो निर्विकल्प चैतन्य सबका आश्रयभूत आत्मा है। जो इस चित्त से अन्तःकरण में कल्पता है। वही होता है। आत्मा से रहित सत्य भी असत्य हो जाता है। जो चैतन्य संवित् में कल्पितरूप होता है सो ही उलटकर अपने स्वरूप को पाता है और जो चित्तसंवित् में कल्पितरूप नहीं होता वह नहीं भासता है। ये जो घट, पटादि पदार्थों के समूह भासते हैं वे विस्तृतरूप चिदाकाश दर्पण में प्रतिविम्बत हैं और अनुभवसत्ता सब भूतों का आदर्शरूप है। जिनका चित्त नष्ट हो जाता है उन सन्त पुरुषों को दृढ़भाव प्राप्त हैं और वे परम आकाशरूप आत्मा में अभ्यास से तन्मय हो जाते हैं अनुभवसत्ता पदार्थों के वृद्ध होने से वृद्ध नहीं होती और नष्ट होने से नष्ट नहीं होती। पदार्थों के भाव अभाव में सत्ता सामान्य ज्यों का त्यों है जैसे सूर्य के प्रतिविम्ब में घट सत्य हो अथवा असत्य हो सूर्य ज्यों का त्यों है। संसार रूप नाना प्रकार की विचित्र रचना ऐसे आत्मा में स्थित है जैसे विचित्र गुच्छों के संयुक्त वृक्षों की पंक्ति की विचित्र रचना पर्वत पर स्थित होती है वैसे ही संसाररूप दृश्य नाना प्रकार की मञ्जरी को धरनेवाला आत्मसत्ता का वृक्ष है जितने भूतगण त्रिलोकी उदर में बर्तते हैं वे सब आत्मा