पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४५

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उपशम प्रकरण

से भिन्नरूप हैं, ब्रह्मा से आदि तृष्णपर्यन्त सबका प्रकाशक आत्मा है। वह अनुभवसत्ता आदि अन्त से रहित है, जिसके सब आकार हैं और स्थावर जङ्गम सब जगत् भूत जाति अन्तर अनुभवरूप स्थित है वह एक अनुभव आत्मा मैं हूँ, द्रष्टा दर्शन दृश्य सर्वरूप आत्मा मैं हूँ और सहस्रनेत्र सहस्रहस्त मेरे हैं। मैं ही चिदाकाशरूप हूँ, सूर्य देह से आकाश में विचरता हूँ और पवन देह से बहता वायु वाहन पर आरूढ़ हूँ। मैं विष्णुरूप शंख, चक्र, गदा पद्म के धरनेवाला हूँ, सब सौभाग्य देखनेवाला हूँ और सब दैत्यों को भगाता और नाशकर्ता मैं ही हूँ। मैं नाभिकमल से उत्पन्न हुआ हूँ, पद्मासन से निर्विकल्प समाधि में स्थित- रूप ब्रह्मा हूँ और मनवृत्तिरूप को प्राप्त हुआ हूँ मैंने ही त्रिनेत्र आकार लिया है, गौरी मेरी अर्धाङ्गनी हैं और सृष्टि के अन्त में सबको में ही संहार करता हूँ जैसे कोई अपने अंगों को संकोच ले तैसे ही मैं संहार करता हूँ। त्रिलोकीरूपी मढ़ी की इन्द्ररूप होकर मैं पालना करता हूँ और कर्मों के अनुसार जैसा कोई भाव करे तैसा फल देता हूँ। तृणबेलि और गुच्छों में रस होकर मैं स्थित हूँ मैं ही उत्पत्तिकर्ता और चेतनरूप हूँ और लीला के निमित्त जगत् आडम्बर विस्ताररूप मैंने ही किया है, जैसे मृत्तिका के खिलौने बालक रच लेता है। मेरे में सब कर्म अर्पण करने से सब शान्ति प्राप्त होती है और मुझसे रहित कुछ वस्तु नहीं, मैं सत्तास्वरूप आदर्श हूँ, सब पदार्थ मेरे में प्रतिबिम्बित होते हैं, तब यह असत्यरूप भी सत्यता को प्राप्त होता है-इससे मुझसे भिन्न कुछ नहीं पुष्पों में सुगन्ध, पत्रों में सुन्दरता, पुरुषों में अनुभव और स्थावर जङ्गमरूप जो जगत् दृष्ट आता है वह सब मैं हूँ। मैं सब संकल्प से रहित परम चेतन्य हूँ और अहं त्वं आदिक से परे हूँ, जल में रसशक्ति, अग्नि में उष्णता और बरफ में शीतलता मैं ही हूँ। जैसे काष्ठ में अग्नि है तैसे ही सबमें स्थित हूँ, सब पदार्थों में मैं परमात्मा व्यापक हूँ और सबको अपनी इच्छा से उपजाता हूँ। जैसे दूध में मृ घृतशक्ति, जल में रसशक्ति और सूर्य में प्रकाशशक्ति है तैसे ही मैं चैतन्यस्वरूप सब पदार्थों में स्थित हूँ। त्रिकाल का जगत् सब मेरे में स्थित है और मैं चित्त के उपचार, फुरने से रहित शुद्ध-